बुधवार, 8 जून 2011

दण्ड




     संध्या का समय था। कचहरी उठ गयी थी। अहलकार चपरासी जेबें खनखनाते घर जा रहे थे। मेहतर कूड़े टटोल रहा था कि शायद कहीं पैसे मिल जायें। कचहरी के बरामदों में सांडों ने वकीलों की जगह ले ली थी। पेड़ों के नीचे मुहर्रिरों की जगह कुत्ते बैठे नजर आते थे। इसी समय एक बूढ़ा आदमी, फटे-पुराने कपड़े पहने, लाठी टेकता हुआ, जंट साहब के बंगले पर पहुंचा और सायबान में खड़ा हो गया। जंट साहब का नाम था मिस्टर जी0 सिनहा। अरदली ने दूर ही से ललकाराकौन सायबान में खड़ा है? क्या चाहता है।
     बूढ़ागरीब बाम्हान हूं भैया, साहब से भेंट होगी?
     अरदलीसाहब तुम जैसों से नहीं मिला करते।
     बूढ़े ने लाठी पर अकड़ कर कहाक्यों भाई, हम खड़े हैं या डाकू-चोर हैं कि हमारे मुंह में कुछ लगा हुआ है?
     अरदलीभीख मांग कर मुकदमा लड़ने आये होंगे?
     बूढ़ातो कोई पाप किया है? अगर घर बेचकर नहीं लड़ते तो कुछ बुरा करते हैं? यहां तो मुकदमा लड़ते-लड़ते उमर बीत गयी; लेकिन घर का पैसा नहीं खरचा। मियां की जूती मियां का सिर करते हैं। दस भलेमानसों से मांग कर एक को दे दिया। चलो छुट्टी हुई। गांव भर नाम से कांपता है। किसी ने जरा भी टिर-पिर की और मैंने अदालत में दावा दायर किया।
     अरदलीकिसी बड़े आदमी से पाला नहीं पड़ा अभी?
     बूढ़ाअजी, कितने ही बड़ों को बड़े घर भिजवा दिया, तूम हो किस फेर में। हाई-कोर्ट तक जाता हूं सीधा। कोई मेरे मुंह क्या आयेगा बेचारा! गांव से तो कौड़ी जाती नहीं, फिर डरें क्यों? जिसकी चीज पर दांत लगाये, अपना करके छोड़ा। सीधे न दिया तो अदालत में घसीट लाये और रगेद-रगेद कर मारा, अपना क्या बिगड़ता है? तो साहब से उत्तला करते हो कि मैं ही पुकारूं?
     अरदली ने देखा; यह आदमी यों टलनेवाला नहीं तो जाकर साहब से उसकी इत्तला की। साहब ने हुलिया पूछा और खुश होकर कहाफौरन बुला लो।
     अरदलीहजूर, बिलकुल फटेहाल है।
     साहबगुदड़ी ही में लाल होते हैं। जाकर भेज दो।
     मिस्टर सिनहा अधेड़ आदमी थे, बहुत ही शांत, बहुत ही विचारशील। बातें बहुत कम करते थे। कठोरता और असभ्यता, जो शासन की अंग समझी जाती हैं, उनको छु भी नहीं गयी थी। न्याय और दया के देवता मालूम होते थे। डील-डौल देवों का-सा था और रंग आबनूस का-सा। आराम-कुर्सी पर लेटे हुए पेचवान पी रहे थे। बूढ़े ने जाकर सलाम किया।
     सिनहातुम हो जगत पांडे! आओ बैठो। तुम्हारा मुकदमा तो बहुत ही कमजोर है। भले आदमी, जाल भी न करते बना?
     जगतऐसा न कहें हजूर, गरीब आदमी हूं, मर जाऊंगा।
     सिनहाकिसी वकील मुख्तार से सलाह भी न ले ली?
     जगतअब तो सरकार की सरन में आया हूं।
     सिनहासरकार क्या मिसिल बदल देंगे; या नया कानून गढ़ेंगे? तुम गच्चा खा गये। मैं कभी कानून के बाहर नहीं जाता। जानते हो न अपील से कभी मेरी तजवीज रद्द नहीं होती?
     जगतबड़ा धरम होगा सरकार! (सिनहा के पैरों पर गिन्नियों की एक पोटली रखकर) बड़ा दुखी हूं सरकार!
     सिनहा(मुस्करा कर) यहां भी अपनी चालबाजी से नहीं चूकते? निकालो अभी और, ओस से प्यास नहीं बुझती। भला दहाई तो पूरा करो।
     जगतबहुत तंग हूं दीनबंधु!
     सिनहाडालो-डालो कमर में हाथ। भला कुछ मेरे नाम की लाज तो रखो।
     जगतलुट जाऊंगा सरकार!
     सिनहालुटें तुम्हारे दुश्मन, जो इलाका बेचकर लड़ते हैं। तुम्हारे जजमानों का भगवान भला करे, तुम्हें किस बात की कमी है।
     मिस्टर सिनहा इस मामले में जरा भी रियायत न करते थे।  जगत ने देखा कि यहां काइयांपन से काम चलेगा तो चुपके से 4 गिन्नियां और निकालीं। लेकिन उन्हें मिस्टर सिनहा के पैरों रखते समय उसकी आंखों से खून निकल आया। यह उसकी बरसों की कमाई थी। बरसों पेट काटकर, तन जलाकर, मन बांधकर, झुठी गवाहियां देकर उसने यह थाती संचय कर पायी थी। उसका हाथों से निकलना प्राण निकलने से कम दुखदायी न था।
     जगत पांडे के चले जाने के बाद, कोई 9 बजे रात को, जंट साहब के बंगले पर एक तांगा आकर रुका और उस पर से पंडित सत्यदेव उतरे जो राजा साहब शिवपुर के मुख्तार थे।
     मिस्टर सिनहा ने मुस्कराकर कहाआप शायद अपने इलाके में गरीबों को न रहने देंगे। इतना जुल्म!
     सत्यदेवगरीब परवर, यह कहिए कि गरीबों के मारे अब इलाके में हमारा रहना मुश्किल हो रहा है। आप जानते हैं, साधी उंगली से घी नहीं निकलता। जमींदार को कुछ-न-कुछ सख्ती करनी ही पड़ती है, मगर अब यह हाल है कि हमने जरा चूं भी की तो उन्हीं गरीबों की त्योरियां बदल जाती हैं। सब मुफ्त में जमीन जोतना चाहते हैं। लगान मांगिये तो फौजदारी का दावा करने को तैयार! अब इसी जगत पांडे को देखिए, गंगा कसम है हुजूर सरासर झूठा दावा है। हुजूर से कोई बात छिपी तो रह नहीं सकती। अगर जगत पांडे मुकदमा जीत गया तो हमें बोरियां-बंधना छोड़कर भागना पड़ेगा। अब हुजूर ही बसाएं तो बस सकते हैं। राजा साहब ने हुजूर को सलाम कहा है और अर्ज की है हक इस मामले में जगत पांडे की ऐसी खबर लें कि वह भी याद करे।
     मिस्टर सिनहा ने भवें सिकोड़ कर कहाकानून मेरे घर तो नहीं बनता?
     सत्यदेवआपके हाथ में सब कुछ है।
     यह कहकर गिन्नियों की एक गड्डी निकाल कर मेज पर रख दी। मिस्टर सिनहा ने गड्डी को आंखों से गिनकर कहाइन्हें मेरी तरफ से राजा साहब को नजर कर दीजिएगा। आखिर आप कोई वकील तो करेंगे। उसे क्या दीजिएगा?
     सत्यदेवयह तो हुजूर के हाथ में है। जितनी ही पेशियां होंगी उतना ही खर्च भी बढ़ेगा।
     सिनहामैं चाहूं तो महीनों लटका सकता हूं।
     सत्यदेवहां, इससे कौन इनकार कर सकता है।
     सिनहापांच पेशियां भी हुयीं तो आपके कम से कम एक हजार उड़ जायेंगे। आप यहां उसका आधा पूरा कर दीजिए तो एक ही पेशी में वारा-न्यारा हो जाए। आधी रकम बच जाय।
     सत्यदेव ने 10 गिन्नियां और निकाल कर मेज पर रख दीं और घमंड के साथ बोलेहुक्म हो तो राजा साहब कह दूं, आप इत्मीनान रखें, साहब की कृपादृष्टि हो गयी है।
     मिस्टर सिनहा ने तीव्र स्वर में कहा जी नहीं, यह कहने की जरूरत नहीं। मैं किसी शर्त पर यह रकम नहीं ले रहा। मैं करूंगा वही जो कानून की मंशा होगी। कानून के खिलाफ जौ-भर भी नहीं जा सकता। यही मेरा उसूल है। आप लोग मेरी खातिर करते हैं, यह आपकी शरारत है। उसे अपना दुश्मन समझूंगा जो मेरा ईमान खरीदना चाहे। मैं जो कुछ लेता हूं, सच्चाई का इनाम समझ कर लेता हूं।
2
गत पांडे को पूरा विश्वास था कि मेरी जीत होगी; लेकिन तजबीज सुनी तो होश उड़ गये! दावा खारिज हो गया! उस पर खर्च की चपत अलग। मेरे साथ यह चाल! अगर लाला साहब को इसका मजा न चखा दिया, तो बाम्हन नहीं। हैं किस फेर में? सारा रोब भुला दूंगा। वहां गाढ़ी कमाई के रुपये हैं। कौन पचा सकता है? हाड़ फोड़-फोड़ कर निकलेंगे। द्वार पर सिर पटक-पटक कर मर जाऊंगा।
     उसी दिन संध्या को जगत पांडे ने मिस्टर सिनहा के बंगले के सामने आसन जमा दिया। वहां बरगद का घना वृक्ष था। मुकदमेवाले वहीं सत्तू, चबेना खाते ओर दोपहरी उसी की छांह में काटते थे। जगत पांडे उनसे मिस्टर सिनहा की दिल खोलकर निंदा करता। न कुछ खाता न पीता, बस लोगों को अपनी रामकहानी सुनाया करता। जो सुनता वह जंट साहब को चार खोटी-खरी कहताआदमी नहीं पिशाच है, इसे तो ऐसी जगह मारे जहां पानी न मिले। रुपये के रुपये लिए, ऊपर से खरचे समेत डिग्री कर दी! यही करना था तो रुपये काहे को निकले थे? यह है हमारे भाई-बंदों का हाल। यह अपने कहलाते हैं! इनसे तो अंग्रेज ही अच्छे। इस तरह की आलोचनाएं दिन-भर हुआ करतीं। जगत पांडे के आस-पास आठों पहर जमघट लगा रहता।
     इस तरह चार दिन बीत गये और मिस्टर सिनहा के कानों में भी बात पहुंची। अन्य रिश्वती कर्मचारियों की तरह वह भी हेकड़ आदमी थे। ऐसे निर्द्वंद्व रहते मानो उन्हें यह बीमारी छू तक नहीं गयी है। जब वह कानून से जौ-भर भी न टलते थे तो उन पर रिश्वत का संदेह हो ही क्योंकर सकता था, और कोई करता भी तो उसकी मानता कौन! ऐसे चतुर खिलाड़ी के विरुद्ध कोई जाब्ते की कार्रवाई कैसे होती? मिस्टर सिनहा अपने अफसरों से भी खुशामद का व्यवहार न करते। इससे हुक्काम भी उनका बहुत आदर करते थे। मगर जगत पांडे ने वह मंत्र मारा था जिसका उनके पास कोई उत्तर न था। ऐसे बांगड़ आदमी से आज तक उन्हें साबिका न पड़ा था। अपने नौकरों से पूछतेबुड्ढा क्या कर रहा है। नौकर लोग अपनापन जताने के लिए झूठ के पुल बांध देतेहुजूर, कहता था भूत बन कर लगूंगा, मेरी वेदी बने तो सही, जिस दिन मरूंगा उस दिन के सौ जगत पांडे होंगे। मिस्टर सिनहा पक्के नास्तिक थे; लेकिन ये बातें सुन-सुनकर सशंक हो जाते, और उनकी पत्नी तो थर-थर कांपने लगतीं। वह नौकरों से बार-बार कहती उससे जाकर पूछो, क्या चाहता है। जितना रुपया चाहे ले, हमसे जो मांगे वह देंगे, बस यहां से चला जाय, लेकिन मिस्टर सिनहा आदमियों को इशारे से मना कर देते थे। उन्हें अभी तक आशा थी कि भूख-प्यास से व्याकुल होकर बुड्ढा चला जायगा। इससे अधिक भय यह था कि मैं जरा भी नरम पड़ा और नौकरों ने मुझे उल्लू बनाया।
     छठे दिन मालूम हुआ कि जगत पांडे अबोल हो गया है, उससे हिला तक नहीं जाता, चुपचाप पड़ा आकाश की ओर देख रहा है। शायद आज रात दम निकल जाय। मिस्टर सिनहा ने लंबी सांस ली और गहरी चिंता में डूब गये। पत्नी ने आंखों में आंसू भरकर आग्रहपूर्वह कहातुम्हें मेरे सिर की कसम, जाकर किसी इस बला को टालो। बुड्ढा मर गया तो हम कहीं के न रहेंगे। अब रुपये का मुंह मत देखो। दो-चार हजार भी देने पड़ें तो देकर उसे मनाओ। तुमको जाते शर्म आती हो तो मैं चली जाऊं।
     सिनहाजाने का इरादा तो मैं कई दिन से कर रहा हूं; लेकिन जब देखता हूं वहां भीड़ लगी रहती है, इससे हिम्मत नहीं पड़ती। सब आदमियों के सामने तो मुझसे न जाया जायगा, चाहे कितनी ही बड़ी आफत क्यों न आ पड़े। तुम दो-चार हजार की कहती हो, मैं दस-पांच हजार देने को तैयार हूं। लेकिन वहां नहीं जा सकता। न जाने किस बुरी साइत से मैंने इसके रुपये लिए। जानता कि यह इतना फिसाद खड़ा करेगा तो फाटक में घुसने ही न देता। देखने में तो ऐसा सीधा मालूम होता था कि गऊ है। मैंने पहली बार आदमी पहचानने में धोखा खाया।
     पत्नीतो मैं ही चली जाऊं? शहर की तरफ से आऊंगी और सब आदमियों को हटाकर अकेले में बात करुंगी। किसी को खबर न होगी कि कौन है। इसमें तो कोई हरज नहीं है?
     मिस्टर सिनहा ने संदिग्ध भाव से कहा-ताड़ने वाले ताड़ ही जायेंगे, वाहे तुम कितना ही छिपाओ।
पत्नीताड़ जायेंगे ताड़ जायें, अब किससे कहां तक डरुं। बदनामी अभी क्या कम हो रही है,जो और हो जायगी। सारी दुनिया जानती है कि तुमने रुपये लिए। यों ही कोई किसी पर प्राण नहीं देता। फिर अब व्यर्थ ऐंथ क्यों करो?
     मिस्टर सिनहा अब मर्मवेदना को न दबा सके। बोलेप्रिये, यह व्यर्थ की ऐंठ नहीं है। चोर को अदालत में बेंत खाने से उतनी लज्जा नहीं आती, जितनी किसी हाकिम को अपनी रिश्वत का परदा खुलने से आती है। वह जहर खा कर मर जायगा; पर संसार के सामने अपना परदा न खोलेगा। अपना सर्वनाश देख सकता है; पर यह अपमान नहीं सह सकता, जिंदा खाल खींचने, या कोल्हू में पेरे जाने के सिवा और कोई स्थिति नहीं है, जो उसे अपना अपराध स्वीकार करा सके। इसका तो मुझे जरा भी भय नहीं है कि ब्राह्मण भूत बनकर हमको सतायेगा, या हमें उनकी वेदी बनाकर पूजनी पड़ेगी, यह भी जानता हूं कि पाप का दंड भी बहुधा नहीं मिलता; लेकिन हिंदू होने के कारण संस्कारों की शंका कुछ-कुछ बनी हुई है। ब्रह्महत्या का कलंक सिर पर लेते हुए आत्मा कांपती है। बस इतनी बात है। मैं आज रात को मौका देखकर जाऊंगा और इस संकट को काटने के लिए जो कुछ हो सकेगा, करुंगा। तिर जमा रखो।
3
धी रात बीत चुकी थी। मिस्टर सिनहा घर से निकले और अकेले जगत पांडे को मनाने चले। बरगद के नीचे बिलकुल सन्नाटा था। अन्धकार ऐसा था मानो निशादेवी यहीं शयन कर रही हों। जगत पांडे की सांस जोर-जोर से चल रही थी मानो मौत जबरदस्ती घसीटे लिए जाती हो। मिस्टर सिनहा के रोएं खड़े हो गये। बुड्ढा कहीं मर तो नहीं रहा है? जेबी लालटेन निकाली और जगत के समीप जाकर बोलेपांडे जी, कहो क्या हाल है?
     जगत पांडे ने आंखें खोलकर देखा और उठने की असफल चेष्टा करके बोलामेरा हाल पूछते हो? देखते नहीं हो, मर रहा हूं?
     सिनहातो इस तरह क्यों प्राण देते हो?
     जगततुम्हारी यही इच्छा है तो मैं क्या करूं?
     सिनहामेरी तो यही इच्छा नहीं। हां, तुम अलबत्ता मेरा सर्वनाश करने पर तुले हुए हो। आखिर मैंने तुम्हारे डेढ़ सौ रूपये ही तो लिए हैं। इतने ही रुपये के लिए तुम इतना बड़ा अनुष्ठान कर रहे हो!
     जगतडेढ़ सौ रुपये की बात नहीं है। जो तुमने मुझे मिट्टी में मिला दिया। मेरी डिग्री हो गयी होती तो मुझे दस बीघे जमीन मिल जाती और सारे इलाके में नाम हो जाता। तुमने मेरे डेढ़ सौ नहीं लिए, मेरे पांच हजार बिगाड़ दिये। पूरे पांच हजार; लेकिन यह घमंड न रहेगा, याद रखना कहे देता हूं, सत्यानाश हो जायगा। इस अदालत में तुम्हारा राज्य है; लेकिन भगवान के दरवार में विप्रों ही का राज्य है। विप्र का धन लेकर कोई सुखी नहीं रह सकता।
     मिस्टर सिनहा ने बहुत खेद और लज्जा प्रकट की, बहुत अनुनय-से काम लिया और अन्त में पूछासच बताओ पांडे, कितने रुपये पा जाओ तो यह अनुष्ठान छोड़ दो।
     जगत पांडे अबकी जोर लगाकर उठ बैठे और बड़ी उत्सुकता से बोलेपांच हजार से कौड़ी कम न लूंगा।
     सिनहापांच हजार तो बहुत होते हैं। इतना जुल्म न करो।
     जगतनहीं, इससे कम न लूंगा।
     यह कहकर जगत पांडे फिर लेट गया। उसने ये शब्द निश्चयात्मक भाव से कहे थे कि मिस्टर सिनहा को और कुछ कहने का साहस न हुआ। रुपये लाने घर चले; लेकिन घर पहुंचते-पहुंचते नीयत बदल गयी। डेढ़ सौ के बदले पांच हजार देते कलंक हुआ। मन में कहामरता है जाने दो, कहां की ब्रह्महत्या और कैसा पाप! यह सब पाखंड है। बदनामी न होगी? सरकारी मुलाजिम तो यों ही बदनाम होते हैं, यह कोई नई बात थोड़े ही है। बचा कैसे उठ बैठे थे। समझा होगा, उल्लू फंसा। अगर 6 दिन के उपवास करने से पांच हजार मिले तो मैं महीने में कम से कम पांच मरतबा यह अनुष्ठान करूं। पांच हजार नहीं, कोई मुझे एक ही हजार दे दे। यहां तो महीने भर नाक रगड़ता हूं तब जाके 600 रुपये के दर्शन होते हैं। नोच-खसोट से भी शायद ही किसी महीने में इससे ज्यादा मिलता हो। बैठा मेरी राह देख रहा होगा। लेना रुपये, मुंह मीठ हो जायगा।
     वह चारपाई पर लेटना चाहते थे कि उनकी पत्नी जी आकर खड़ी हो गयीं। उनक सिर के बाल खुले हुए थे। आंखें सहमी हुई, रह-रहकर कांप उठती थीं। मुंह से शब्द न निकलता था। बड़ी मुश्किल से बोलींआधी रात तो हो गई होगी? तुम जगत पांडे के पास चले जाओ। मैंने अभी ऐसा बुरा सपना देखा है कि अभी तक कलेजा धड़क रहा है, जान संकट में पड़ी हुई है। जाके किसी तरह उसे टालो।
     मिस्टर सिनहावहीं से तो चला आ रहा हूं। मुझे तुमसे ज्यादा फिक्र है। अभी आकर खड़ा ही हुआ था कि तुम आयी।
     पत्नीअच्छा! तो तुम गये थे! क्या बातें हुईं, राजी हुआ।
     सिनहापांच हजार रुपये मांगता है!
     पत्नीपांच हजार!
     सिनहाकौड़ी कम नहीं कर सकता और मेरे पास इस वक्त एक हजार से ज्यादा न होंगे।
     पत्नी ने एक क्षण सोचकर कहाजितना मांगता है उतना ही दे दो, किसी तरह गला तो छूट। तुम्हारे पास रुपये न हों तो मैं दे दूंगी। अभी से सपने दिखाई देन लगे हैं। मरा तो प्राण कैसे बचेंगे। बोलता-चालता है न?
     मिस्टर सिनहा अगर आबनूस थे तो उनकी पत्नी चंदन; सिनहा उनके गुलाम थे, उनके इशारों पर चलते थे। पत्नी जी भी पति-शासन में कुशल थीं। सौंदर्य और अज्ञान में अपवाद है। सुंदरी कभी भोली नहीं होती। वह पुरुष के मर्मस्थल पर आसन जमाना जानती है!
     सिनहातो लाओ देता आऊं; लेकिन आदमी बड़ा चग्घड़ है, कहीं रुपये लेकर सबको दिखाता फिरे तो?
     पत्नीइसको यहां से इसी वक्त भागना होगा।
     सिनहातो निकालो दे ही दूं। जिंदगी में यह बात भी याद रहेगी।
     पत्नीने अविश्वास भाव से कहाचलो, मैं भी चलती हूं। इस वक्त कौन देखता है?
     पत्नी से अधिक पुरुष के चरित्र का ज्ञान और किसी को नहीं होता। मिस्टर सिनहा की मनोवृत्तियों को उनकी पत्नी जी खूब जानती थीं। कौन जान रास्ते में रुपये कहीं छिपा दें, और कह दें दे आए। या कहने लगें, रुपये लेकर भी नहीं टलता तो मैं क्या करूं। जाकर संदूक से नोटों के पुलिंदे निकाले और उन्हें चादर में छिपा कर मिस्टर सिनहा के साथ चलीं। सिनहा के मुंह पर झाडू-सी फिरी थी। लालटेन लिए पछताते चले जाते थे। 5000 रु0 निकले जाते हैं। फिर इतने रुपये कब मिलेंगे; कौन जानता है? इससे तो कहीं अच्छा था दुष्ट मर ही जाता। बला से बदनामी होती, कोई मेरी जेब से रुपये तो न छीन लेता। ईश्वर करे मर गया हो!
     अभी तक दोनों आदमी फाटक ही तकम आए थे कि देखा, जगत पांडे लाठी टेकता चला आता है। उसका स्वरूप इतना डरावना था मानो श्मशान से कोई मुरदा भागा आता हो।
     पत्नी जी बोलीमहाराज, हम तो आ ही रहे थे, तुमने क्यों कष्ट किया? रुपये ले कर सीधे घर चले जाओगे न?
     जगतहां-हां, सीधा घर जाऊंगा। कहां हैं रुपये देखूं!
     पत्नी जी ने नोटों का पुलिंदा बाहर निकाला और लालटेन दिखा कर बोलींगिन लो। 5000 रुपये हैं!
     पांडे ने पुलिंदा लिया और बैठ कर उलट-पुलट कर देखने लगा। उसकी आंखें एक नये प्रकाश से चमकने लगी। हाथों में नोटों को तौलता हुआ बोलापूरे पांच हजार हैं?
     पत्नीपूरे गिन लो?
     जगतपांच हजार में दो टोकरी भर जायगी! (हाथों से बताकर) इतने सारे पांच हजार!
     सिनहाक्या अब भी तुम्हें विश्वास नहीं आता?
     जगतहैं-हैं, पूरे हैं पूरे पांच हजार! तो अब जाऊं, भाग जाऊं?
     यह कह कर वह पुलिंदा लिए कई कदम लड़खड़ाता हुआ चला, जैसे कोई शराबी, और तब धम से जमीन पर गिर पड़ा। मिस्टर सिनहा लपट कर उठाने दौड़े तो देखा उसकी आंखें पथरा गयी हैं और मुख पीला पड़ गया है। बोलेपांडे, क्या कहीं चोट आ गयी?
     पांडे ने एक बार मुंह खोला जैसे मरी हुई चिड़िया सिर लटका चोंच खोल देती है। जीवन का अंतिम धागा भी टूट गया। ओंठ खुले हुए थे और नोटों का पुलिंदा छाती पर रखा हुआ था। इतने में पत्नी जी भी आ पहुंची और शव को देखकर चौंक पड़ीं!
     पत्नीइसे क्या हो गया?
     सिनहामर गया और क्या हो गया?
     पत्नी(सिर पीट कर) मर गया! हाय भगवान्! अब कहां जाऊं?
     यह कह कर बंगले की ओर बड़ी तेजी से चलीं। मिस्टर सिनहा ने भी नोटो का पुलिंदा शव की छाती पर से उठा लिया और चले।
     पत्नीये रुपये अब क्या होंगे?
     सिनहाकिसी धर्म-कार्य में दे दूंगा।
     पत्नीघर में मत रखना, खबरदार! हाय भगवान!
4
दूसरे दिन सारे शहर में खबर मशहूर हो गयीजगत पांडे ने जंट साहब पर जान दे दी। उसका शव उठा तो हजारों आदमी साथ थे। मिस्टर सिनहा को खुल्लम-खुल्ला गालियां दी जा रही थीं।
     संध्या समय मिस्टर सिनहा कचहरी से आ कर मन मार बैठे थे कि नौकरों ने आ कर कहासरकार, हमको छुट्टी दी जाय! हमारा हिसाब कर दीजिए। हमारी बिरादरी के लोग धमकते हैं कि तुम जंट साहब की नौकरी करोगे तो हुक्का-पानी बंद हो जायगा।
     सिनहा ने झल्ला कर कहाकौन धमकाता है?
     कहारकिसका नाम बताएं सरकार! सभी तो कह रहे हैं।
     रसोइयाहुजूर, मुझे तो लोग धमकाते हैं कि मन्दिर में न घुसने पाओगे।
     साईसहुजूर, बिरादरी से बिगाड़ करक हम लोग कहां जाएंगे? हमारा आज से इस्तीफा है। हिसाब जब चाहे कर दीजिएगा।
     मिस्टर सिनहा ने बहुत धमकाया फिर दिलासा देने लगे; लेकिन नौकरों ने एक न सुनी। आध घण्टे के अन्दर सबों ने अपना-अपना रास्ता लिया। मिस्टर सिनहा दांत पीस कर रह गए; लेकिन हाकिमों का काम कब रुकता है? उन्होंने उसी वक्त कोतवाल को खबर कर दी और कई आदमी बेगार में पकड़ आए। काम चल निकला।
     उसी दिन से मिस्टर सिनहा और हिंदू समाज में खींचतान शुरु हुई। धोबी ने कपड़े धोन बंद कर दिया। ग्वाले ने दूध लाने में आना-कानी की। नाई ने हजामत  बनानी छोड़ी। इन विपत्तियों पर पत्नी जी का रोना-धोना और भी गजब था। इन्हें रोज भयंकर स्वप्न दिखाई देते। रात को एक कमरे से दूसरे में जाते प्राण निकलते थे। किसी को जरा सिर भी दुखता तो नहीं में जान समा जाती। सबसे बड़ी मुसीबत यह थी कि अपने सम्बन्धियों ने भी आना-जाना छोड़ दिया। एक दिन साले आए, मगर बिना पानी पिये चले गए। इसी तरह एक बहनोई का आगमन हुआ। उन्होंने पान तक न खाया। मिस्टर सिनहा बड़े धैर्य से यह सारा तिरस्कार सहते जाते थे। अब तक उनकी आर्थिक हानि न हुई थी। गरज के बावले झक मार कर आते ही थे और नजर-नजराना मिलता ही था। फिर विशेष चिंता का कोई कारण न था।
     लेकिन बिरादरी से वैर करना पानी में रह कर मगर से वैर करने जैसे है। कोई-न-कोई ऐसा अवसर ही आ जाता है, जब हमको बिरादरी के सामने सिर झुकाना पड़ता है। मिस्टर सिनहा को भी साल के अन्दर ही ऐसा अवसर आ पड़ा। यह उनकी पुत्री का विवाह  था। यही वह समस्या है जो बड़े-बड़े हेकड़ों का घमंड चूर कर देती है। आप किसी के आने-जाने की परवा न करें, हुक्का-पानी, भोज-भात, मेल-जोल किसी बात की परवा न करे; मगर लड़की का विवाह तो न टलने वाली बला है। उससे बचकर आप कहां जाएंगे! मिस्टर सिनहा को इस बात का दगदगा तो पहिले ही था कि त्रिवेणी के विवाह में बाधाएं पड़ेगी; लेकिन उन्हें विश्वास था कि द्रव्य की अपार शक्ति इस मुश्किल को हल कर देगी। कुछ दिनों तक उन्होंने जान-बूझ कर टाला कि शायद इस आंधी का जोर कुछ कम हो जाय; लेकिन जब त्रिवेणी को सोलहवां साल समाप्त हो गया तो टाल-मटोल की गुंजाइश न रही। संदेशे भेजने लगे; लेकिन जहां संदेशिया जाता वहीं जवाब मिलताहमें मंजूर नही। जिन घरों में साल-भर पहले उनका संदेशा पा कर लोग अपने भाग्य को सराहते, वहां से अब सूखा जवाब मिलता थाहमें मंजूर नहीं। मिस्टर सिनहा धन का लोभ देते, जमीन नजर करने को कहते, लड़के को विलायत भेज कर ऊंची शिक्षा दिलाने का प्रस्ताव करते किंतु उनकी सारी आयोजनाओं का एक ही जवाब मिलता थाहमें मंजूर नहीं। ऊंचे घरानों का यह हाल देखकर मिस्टर सिनहा उन घरानों में संदेश भेजने लगे, जिनके साथ पहले बैठकर भोजन करने में भी उन्हें संकोच होता था;लेकिन वहां भी वही जवाब मिलाहमें मंजूर नही। यहां तक कि कई जगह वे खुद दौड़-दौड़ कर गये। लोगों की मिन्नतें कीं, पर यही जवाब मिलासाहब, हमें मंजूर नहीं। शायद बहिष्कृत घरानों में उनका संदेश स्वीकार कर लिया जाता; पर मिस्टर सिनहा जान-बूझकर मक्खी न निगलना चाहते थे। ऐसे लोगों से सम्बन्ध न करना चाहते थे जिनका बिरादरी में काई स्थान न था। इस तरह एक वर्ष बीत गया।
     मिसेज सिनहा चारपाई पर पड़ी कराह रही थीं, त्रिवेणी भोजन बना रही थी और मिस्टर सिनहा पत्नी के पास चिंता में डूबे बैठे हुए थे। उनके हाथ में एक खत था, बार-बार उसे देखते और कुछ सोचने लगते थे। बड़ी देर के बाद रोगिणी ने आंखें खोलीं और बोलींअब न बचूंगी पांडे मेरी जान लेकर छोड़ेगा। हाथ में कैसा कागज है?
     सिनहायशोदानंदन के पास से खत आया हैं। पाजी को यह खत लिखते हुए शर्म नहीं आती, मैंने इसकी नौकरी लगायी। इसकी शादी करवायी और आज उसका मिजाज इतना बढ़ गया है कि अपने छोटे भाई की शादी मेरी लड़की से करना पसंद नहीं करता। अभागे के भाग्य खुल जाते!
     पत्नीभगवान्, अब ले चलो। यह दुर्दशा नहीं देखी जाती। अंगूर खाने का जी चाहता है, मंगवाये है कि नहीं?
     सिनाहमैं जाकर खुद लेता आया था।
     यह कहकर उन्होंने तश्तरी में अंगूर भरकर पत्नी के पास रख दिये। वह उठा-उठा कर खाने लगीं। जब तश्तरी खाली हो गयी तो बोलींअब किसके यहां संदेशा भेजोगे?
     सिनहाकिसके यहां बताऊं! मेरी समझ में तो अब कोई ऐसा आदमी नहीं रह गया। ऐसी बिरादरी में रहने से तो यह हजार दरजा अच्छा है कि बिरादरी के बाहर रहूं। मैंने एक ब्राह्मण से रिश्वत ली। इससे मुझे इनकार नहीं। लेकिन कौन रिश्वत नहीं लेता? अपने गौं पर कोई नहीं चूकता। ब्राह्मण नहीं खुद ईश्वर ही क्यों न हों, रिश्वत खाने वाले उन्हें भी चूस लेंगे। रिश्वत देने वाला अगर कोई निराश होकर अपने प्राण देता है तो मेरा क्या अपराध! अगर कोई मेरे फैसले से नाराज होकर जहर खा ले तो मैं क्या कर सकता हूं। इस पर भी मैं प्रायश्चित करने को  तैयार हूं। बिरादरी जो दंड दे, उसे स्वीकार करने को तैयार हूं। सबसे कह चुका हूं मुझसे जो प्रायश्चित चाहो करा लो पर कोई नहीं सुनता। दंड अपराध के अनुकूल होना चाहिए, नहीं तो यह अन्याय है। अगर किसी मुसलमान का छुआ भोजन खाने के लिए बिरादरी मुझे काले पानी भेजना चाहे तो मैं उसे कभी न मानूंगा। फिर अपराध अगर है तो मेरा है। मेरी लड़की ने क्या अपराध किया है। मेरे अपराध के लिए लड़की को दंड देना सरासर न्याय-विरुद्ध है।
     पत्नीमगर करोगे क्या? और कोई पंचायत क्यों नहीं करते?
     सिनहापंचायत में भी तो वही बिरादरी के मुखिया लोग ही होंगे, उनसे मुझे न्याय की आशा नहीं। वास्तव में इस तिरस्कार का कारण ईर्ष्या है। मुझे देखकर सब जलते हैं और इसी बहाने वे मुझे नीचा दिखाना चाहते हैं। मैं इन लोगों को खूब समझता हूं।
     पत्नीमन की लालसा मन में रह गयी। यह अरमान लिये संसार से जाना पड़ेगा। भगवान् की जैसी इच्छा। तुम्हारी बातों से मुझे डर लगता है कि मेरी बच्ची की न-जाने क्या दशा होगी। मगर तुमसे मेरी अंतिम विनय यही है कि बिरादरी से बाहर न जाना, नहीं तो परलोक में भी मेरी आत्मा को शांति न मिलेगी। यह शोक मेरी जान ले रहा है। हाय, बच्ची पर न-जाने क्या विपत्ति आने वाली है।
     यह कहते मिसेज सिनहा की आंखें में आंसू बहने लगे। मिस्टर सिनहा ने उनको दिलासा देते हुए कहाइसकी चिंता मत करो प्रिये, मेरा आशय केवल यह था कि ऐसे भाव मन में आया करते हैं। तुमसे सच कहता हूं, बिरादरी के अन्याय से कलेजा छलनी हो गया है।
     पत्नीबिरादरी को बुरा मत कहो। बिरादरी का डर न हो तो आदमी न जाने क्या-क्या उत्पात करे। बिरादरी को बुरा न कहो। (कलेजे पर हाथ रखकर) यहां बड़ा दर्द हो रहा है। यशोदानंद ने भी कोरा जवाब दे दिया। किसी करवट चैन नहीं आता। क्या करुं भगवान्।
     सिनहाडाक्टर को बुलाऊं?
     पत्नीतुम्हारा जी चाहे बुला लो, लेकिन मैं बचूंगी नहीं। जरा तिब्बो को बुला लो, प्यार कर लूं। जी डूबा जाता है। मेरी बच्ची! हाय मेरी बच्ची!!

नैराश्य




बाज आदमी अपनी स्त्री से इसलिए नाराज रहते हैं कि उसके लड़कियां ही क्यों होती हैं, लड़के क्यों नहीं होते। जानते हैं कि इनमें स्त्री को दोष नहीं है, या है तो उतना ही जितना मेरा, फिर भी जब देखिए स्त्री से रूठे रहते हैं, उसे अभागिनी कहते हैं और सदैव उसका दिल दुखाया करते हैं। निरुपमा उन्ही अभागिनी स्त्रियों में थी और घमंडीलाल त्रिपाठी उन्हीं अत्याचारी पुरुषों में। निरुपमा के तीन बेटियां लगातार हुई थीं और वह सारे घर की निगाहों से गिर गयी थी। सास-ससुर की अप्रसन्नता की तो उसे विशेष चिंता न थी, वह पुराने जमाने के लोग थे, जब लड़कियां गरदन का बोझ और पूर्वजन्मों का पाप समझी जाती थीं। हां, उसे दु:ख अपने पतिदेव की अप्रसन्नता का था जो पढ़े-लिखे आदमी होकर भी उसे जली-कटी सुनाते रहते थे। प्यार करना तो दूर रहा, निरुपमा से सीधे मुंह बात न करते, कई-कई दिनों तक घर ही में न आते और आते तो कुछ इस तरह खिंचे-तने हुए रहते कि निरुपमा थर-थर कांपती रहती थी, कहीं गरज न उठें। घर में धन का अभाव न था; पर निरुपमा को कभी यह साहस न होता था कि किसी सामान्य वस्तु की इच्छा भी प्रकट कर सके। वह समझती थी, में यथार्थ में अभागिनी हूं, नहीं तो भगवान् मेरी कोख में लड़कियां ही रचते। पति की एक मृदु मुस्कान के लिए, एक मीठी बात के लिए उसका हृदय तड़प कर रह जाता था। यहां तक कि वह अपनी लड़कियों को प्यार करते हुए सकुचाती थी कि लोग कहेंगे, पीतल की नथ पर इतना गुमान करती है। जब त्रिपाठी जी के घर में आने का समय होता तो किसी-न-किसी बहाने से वह लड़कियों को उनकी आंखों से दूर कर देती थी। सबसे बड़ी विपत्ति यह थी कि त्रिपाठी जी ने धमकी दी थी कि अब की कन्या हुई तो घर छोड़कर निकल जाऊंगा, इस नरक में क्षण-भर न ठहरूंगा। निरुपमा को यह चिंता और भी खाये जाती थी।
वह मंगल का व्रत रखती थी, रविवार, निर्जला एकादसी और न जाने कितने व्रत करती थी। स्नान-पूजा तो नित्य का नियम था; पर किसी अनुष्ठान से मनोकामना न पूरी होती थी। नित्य अवहेलना, तिरस्कार, उपेक्षा, अपमान सहते-सहते उसका चित्त संसार से विरक्त होता जाता था। जहां कान एक मीठी बात के लिए, आंखें एक प्रेम-दृष्टि के लिए, हृदय एक आलिंगन के लिए तरस कर रह जाये, घर में अपनी कोई बात न पूछे, वहां जीवन से क्यों न अरुचि हो जाय?
एक दिन घोर निराशा की दशा में उसने अपनी बड़ी भावज को एक पत्र लिखा। एक-एक अक्षर से असह्य वेदना टपक रही थी। भावज ने उत्तर दियातुम्हारे भैया जल्द तुम्हें विदा कराने जायेंगे। यहां आजकल एक सच्चे महात्मा आये हुए हैं जिनका आर्शीवाद कभी निष्फल नहीं जाता। यहां कई संतानहीन स्त्रियां उनक आर्शीवाद से पुत्रवती हो गयीं। पूर्ण आशा है कि तुम्हें भी उनका आर्शीवाद कल्याणकारी होगा।
     निरुपमा ने यह पत्र पति को दिखाया। त्रिपाठी जी उदासीन भाव से बोलेसृष्टि-रचना महात्माओं के हाथ का काम नहीं, ईश्वर का काम है।
     निरुपमाहां, लेकिन महात्माओं में भी तो कुछ सिद्धि होती है।
     घमंडीलालहां होती है, पर ऐसे महात्माओं के दर्शन दुर्लभ हैं।
     निरुपमामैं तो इस महात्मा के दर्शन करुंगी।
     घमंडीलालचली जाना।
     निरुपमाजब बांझिनों के लड़के हुए तो मैं क्या उनसे भी गयी-गुजरी हूं।
     घमंडीलालकह तो दिया भाई चली जाना। यह करके भी देख लो। मुझे तो ऐसा मालूम होता है, पुत्र का मुख देखना हमारे भाग्य में ही नहीं है।
2
कई दिन बाद निरुपमा अपने भाई के साथ मैके गयी। तीनों पुत्रियां भी साथ थीं। भाभी ने उन्हें प्रेम से गले लगाकर कहा, तुम्हारे घर के आदमी बड़े निर्दयी हैं। ऐसी गुलाब फूलों की-सी लड़कियां पाकर भी तकदीर को रोते हैं। ये तुम्हें भारी हों तो मुझे दे दो। जब ननद और भावज भोजन करके लेटीं तो निरुपमा ने पूछावह महात्मा कहां रहते हैं?
     भावजऐसी जल्दी क्या है, बता दूंगी।
     निरुपमाहै नगीच ही न?
     भावजबहुत नगीच। जब कहोगी, उन्हें बुला दूंगी।
     निरुपमातो क्या तुम लोगों पर बहुत प्रसन्न हैं?
     भावजदोनों वक्त यहीं भोजन करते हैं। यहीं रहते हैं।
     निरुपमाजब घर ही में वैद्य तो मरिये क्यों? आज मुझे उनके दर्शन करा देना।
     भावजभेंट क्या दोगी?
     निरुपमामैं किस लायक हूं?
     भावजअपनी सबसे छोटी लड़की दे देना।
     निरुपमाचलो, गाली देती हो।
     भावजअच्छा यह न सही, एक बार उन्हें प्रेमालिंगन करने देना।
     निरुपमाचलो, गाली देती हो।
     भावजअच्छा यह न सही, एक बार उन्हें प्रेमालिंगन करने देना।
     निरुपमाभाभी, मुझसे ऐसी हंसी करोगी तो मैं चली आऊंगी।
     भावजवह महात्मा बड़े रसिया हैं।
     निरुपमातो चूल्हे में जायं। कोई दुष्ट होगा।
     भावजउनका आर्शीवाद तो इसी शर्त पर मिलेगा। वह और कोई भेंट स्वीकार ही नहीं करते।
     निरुपमातुम तो यों बातें कर रही हो मानो उनकी प्रतिनिधि हो।
     भावजहां, वह यह सब विषय मेरे ही द्वारा तय किया करते हैं। मैं भेंट लेती हूं। मैं ही आर्शीवाद देती हूं, मैं ही उनके हितार्थ भोजन कर लेती हूं।
     निरुपमातो यह कहो कि तुमने मुझे बुलाने के लिए यह हीला निकाला है।
     भावजनहीं, उनके साथ ही तुम्हें कुछ ऐसे गुर दूंगी जिससे तुम अपने घर आराम से रहा।
    इसके बाद दोनों सखियों में कानाफूसी होने लगी। जब भावज चुप हुई तो निरुपमा बोलीऔर जो कहीं फिर क्या ही हुई तो?
     भावजतो क्या? कुछ दिन तो शांति और सुख से जीवन कटेगा। यह दिन तो कोई लौटा न लेगा। पुत्र हुआ तो कहना ही क्या, पुत्री हुई तो फिर कोई नयी युक्ति निकाली जायेगी। तुम्हारे घर के जैसे अक्ल के दुश्मनों के साथ ऐसी ही चालें चलने से गुजारा है।
     निरुपमामुझे तो संकोच मालूम होता है।
     भावजत्रिपाठी जी को दो-चार दिन में पत्र लिख देना कि महात्मा जी के दर्शन हुए और उन्होंने मुझे वरदान दिया है। ईश्वर ने चाहा तो उसी दिन से तुम्हारी मान-प्रतिष्ठा होने लगी। घमंडी दौड़े हुए आयेंगे और तम्हारे ऊपर प्राण निछावर करेंगे। कम-से-कम साल भर तो चैन की वंशी बजाना। इसके बाद देखी जायेगी।
     निरुपमापति से कपट करूं तो पाप न लगेगा?
     भावजऐसे स्वार्थियों से कपट करना पुण्य है।
                          3
तीन चार महीने के बाद निरुपमा अपने घर आयी। घमंडीलाल उसे विदा कराने गये थे। सलहज ने महात्मा जी का रंग और भी चोखा कर दिया। बोलीऐसा तो किसी को देखा नहीं कि इस महात्मा जी ने वरदान दिया हो और वह पूरा न हो गया हो। हां, जिसका भाग्य फूट जाये उसे कोई क्या कर सकता है।
     घमंडीलाल प्रत्यक्ष तो वरदान और आर्शीवाद की उपेक्षा ही करते रहे, इन बातों पर विश्वास करना आजकल संकोचजनक मालूम होता ह; पर उनके दिल पर असर जरूर हुआ।
     निरुपमा की खातिरदारियां होनी शुरू हुईं। जब वह गर्भवती हुई तो सबके दिलों में नयी-नयी आशाएं हिलोरें लेने लगी। सास जो उठते गाली और बैठते व्यंग्य से बातें करती थीं अब उसे पान की तरह फेरतीबेटी, तुम रहने दो, मैं ही रसोई बना लूंगी, तुम्हारा सिर दुखने लगेगा। कभी निरुपमा कलसे का पानी या चारपाई उठाने लगती तो सास दौड़तीबहू,रहने दो, मैं आती हूं, तुम कोई भारी चीज मत उठाया करा। लड़कियों की बात और होती है, उन पर किसी बात का असर नहीं होता, लड़के तो गर्भ ही में मान करने लगते हैं। अब निरुपमा के लिए दूध का उठौना किया गया, जिससे बालक पुष्ट और गोरा हो। घमंडी वस्त्राभूषणों पर उतारू हो गये। हर महीने एक-न-एक नयी चीज लाते। निरुपमा का जीवन इतना सुखमय कभी न था। उस समय भी नहीं जब नवेली वधू थी।
     महीने गुजरने लगे। निरूपमा को अनुभूत लक्षणों से विदित होने लगा कि यह कन्या ही है; पर वह इस भेद को गुप्त रखती थी। सोचती, सावन की धूप है, इसका क्या भरोसा जितनी चीज धूप में सुखानी हो सुखा लो, फिर तो घटा छायेगी ही। बात-बात पर बिगड़ती। वह कभी इतनी मानशीला न थी। पर घर में कोई चूं तक न करता कि कहीं बहू का दिल न दुखे, नहीं बालक को कष्ट होगा। कभी-कभी निरुपमा केवल घरवालों को जलाने के लिए अनुष्ठान करती, उसे उन्हें जलाने में मजा आता था। वह सोचती, तुम स्वार्थियों को जितना जलाऊं उतना अच्छा! तुम मेरा आदर इसलिए करते हो न कि मैं बच्च जनूंगी जो तुम्हारे कुल का नाम चलायेगा। मैं कुछ नहीं हूं, बालक ही सब-कुछ है। मेरा अपना कोई महत्व नहीं, जो कुछ है वह बालक के नाते। यह मेरे पति हैं! पहले इन्हें मुझसे कितना प्रेम था, तब इतने संसार-लोलुप न हुए थे। अब इनका प्रेम केवल स्वार्थ का स्वांग है। मैं भी पशु हूं जिसे दूध के लिए चारा-पानी दिया जाता है। खैर, यही सही, इस वक्त तो तुम मेरे काबू में आये हो! जितने गहने बन सकें बनवा लूं, इन्हें तो छीन न लोगे।
     इस तरह दस महीने पूरे हो गये। निरुपमा की दोनों ननदें ससुराल से बुलायी गयीं। बच्चे के लिए पहले ही सोने के गहने बनवा लिये गये, दूध के लिए एक सुन्दर दुधार गाय मोल ले ली गयी, घमंडीलाल उसे हवा खिलाने को एक छोटी-सी सेजगाड़ी लाये। जिस दिन निरूपमा को प्रसव-वेदना होने लगी, द्वार पर पंडित जी मुहूर्त देखने के लिए बुलाये गये। एक मीरशिकार बंदूक छोड़ने को बुलाया गया, गायनें मंगल-गान के लिए बटोर ली गयीं। घर से तिल-तिल कर खबर मंगायी जाती थी, क्या हुआ? लेडी डॉक्टर भी बुलायी गयीं। बाजे वाले हुक्म के इंतजार में बैठे थे। पामर भी अपनी सारंगी लिये जच्चा मान करे नंदलाल सों की तान सुनाने को तैयार बैठा था। सारी तैयारियां; सारी आशाएं, सारा उत्साह समारोह एक ही शब्द पर अवलम्बि था। ज्यों-ज्यों देर होती थी लोगों में उत्सुकता बढ़ती जाती थी। घमंडीलाल अपने मनोभावों को छिपाने के लिए एक समाचार पत्र देख रहे थे, मानो उन्हें लड़का या लड़की दोनों ही बराबर हैं। मगर उनके बूढ़े पिता जी इतने सावधान न थे। उनकी पीछें खिली जाती थीं, हंस-हंस कर सबसे बात कर रहे थे और पैसों की एक थैली को बार-बार उछालते थे।
     मीरशिकार ने कहामालिक से अबकी पगड़ी दुपट्टा लूंगा।
     पिताजी ने खिलकर कहाअबे कितनी पगड़ियां लेगा? इतनी बेभाव की दूंगा कि सर के बाल गंजे हो जायेंगे।
     पामर बोलासरकार अब की कुछ जीविका लूं।
     पिताजी खिलकर बोलेअबे कितनी खायेगा; खिला-खिला कर पेट फाड़ दूंगा।
     सहसा महरी घर में से निकली। कुछ घबरायी-सी थी। वह अभी कुछ बोलने भी न पायी थी कि मीरशिकार ने बन्दूक फैर कर ही तो दी। बन्दूक छूटनी थी कि रोशन चौकी की तान भी छिड़ गयी, पामर भी कमर कसकर नाचने को खड़ा हो गया।
     महरीअरे तुम सब के सब भंग खा गये हो गया?
     मीरशिकारक्या हुआ?
     महरीहुआ क्या लड़की ही तो फिर हुई है?
     पिता जीलड़की हुई है?
     यह कहते-कहते वह कमर थामकर बैठ गये मानो वज्र गिर पड़ा। घमंडीलाल कमरे से निकल आये और बोलेजाकर लेडी डाक्टर से तो पूछ। अच्छी तरह देख न ले। देखा सुना, चल खड़ी हुई।
     महरीबाबूजी, मैंने तो आंखों देखा है!
     घमंडीलालकन्या ही है?
     पिताहमारी तकदीर ही ऐसी है बेटा! जाओ रे सब के सब! तुम सभी के भाग्य में कुछ पाना न लिखा था तो कहां से पाते। भाग जाओ। सैंकड़ों रुपये पर पानी फिर गया, सारी तैयारी मिट्टी में मिल गयी।
     घमंडीलालइस महात्मा से पूछना चाहिए। मैं आज डाक से जरा बचा की खबर लेता हूं।
     पिताधूर्त है, धूर्त!
     घमंडीलालमैं उनकी सारी धूर्तता निकाल दूंगा। मारे डंडों के खोपड़ी न तोड़ दूं तो कहिएगा। चांडाल कहीं का! उसके कारण मेरे सैंकड़ों रुपये पर पानी फिर गया। यह सेजगाड़ी, यह गाय, यह पलना, यह सोने के गहने किसके सिर पटकूं। ऐसे ही उसने कितनों ही को ठगा होगा। एक दफा बचा ही मरम्मत हो जाती तो ठीक हो जाते।
     पिता जीबेटा, उसका दोष नहीं, अपने भाग्य का दोष है।
     घमंडीलालउसने क्यों कहा ऐसा नहीं होगा। औरतों से इस पाखंड के लिए कितने ही रुपये ऐंठे होंगे। वह सब उन्हें उगलना पड़ेगा, नहीं तो पुलिस में रपट कर दूंगा। कानून में पाखंड का भी तो दंड है। मैं पहले ही चौंका था कि हो न हो पाखंडी है; लेकिन मेरी सलहज ने धोखा दिया, नहीं तो मैं ऐसे पाजियों के पंजे में कब आने वाला था। एक ही सुअर है।
     पिताजीबेटा सब्र करो। ईश्वर को जो कुछ मंजूर था, वह हुआ। लड़का-लड़की दोनों ही ईश्वर की देन है, जहां तीन हैं वहां एक और सही।
     पिता और पुत्र में तो यह बातें होती रहीं। पामर, मीरशिकार आदि ने अपने-अपने डंडे संभाले और अपनी राह चले। घर में मातम-सा छा गया, लेडी डॉक्टर भी विदा कर दी गयी, सौर में जच्चा और दाई के सिवा कोई न रहा। वृद्धा माता तो इतनी हताश हुई कि उसी वक्त अटवास-खटवास लेकर पड़ रहीं।
     जब बच्चे की बरही हो गयी तो घमंडीलाल स्त्री के पास गये और सरोष भाव से बोलेफिर लड़की हो गयी!
     निरुपमाक्या करूं, मेरा क्या बस?
     घमंडीलालउस पापी धूर्त ने बड़ा चकमा दिया।
     निरुपमाअब क्या कहें, मेरे भाग्य ही में न होगा, नहीं तो वहां कितनी ही औरतें बाबाजी को रात-दिन घेरे रहती थीं। वह किसी से कुछ लेते तो कहती कि धूर्त हैं, कसम ले लो जो मैंने एक कौड़ी भी उन्हें दी हो।
     घमंडीलालउसने लिया या न लिया, यहां तो दिवाला निकल गया। मालूम हो गया तकदीर में पुत्र नहीं लिखा है। कुल का नाम डूबना ही है तो क्या आज डूबा, क्या दस साल बाद डूबा। अब कहीं चला जाऊंगा, गृहस्थी में कौन-सा सुख रखा है।
     वह बहुत देर तक खड़े-खड़े अपने भाग्य को रोते रहे; पर निरुपमा ने सिर तक न उठाया।
     निरुपमा के सिर फिर वही विपत्ति आ पड़ी, फिर वही ताने, वही अपमान, वही अनादर, वही छीछालेदार, किसी को चिंता न रहती कि खाती-पीती है या नहीं, अच्छी है या बीमार, दुखी है या सुखी। घमंडीलाल यद्यपि कहीं न गये, पर निरूपमा को यही धमकी प्राय: नित्य ही मिलती रहती थी। कई महीने यों ही गुजर गये तो निरूपमा ने फिर भावज को लिखा कि तुमने और भी मुझे विपत्ति में डाल दिया। इससे तो पहले ही भली थी। अब तो काई बात भी नहीं पूछता कि मरती है या जीती है। अगर यही दशा रही तो स्वामी जी चाहे संन्यास लें या न लें, लेकिन मैं संसार को अवश्य त्याग दूंगी।
4
भाभी पत्र पाकर परिस्थिति समझ गयी। अबकी उसने निरुपमा को बुलाया नहीं, जानती थी कि लोग विदा ही न करेंगे, पति को लेकर स्वयं आ पहुंची। उसका नाम सुकेशी था। बड़ी मिलनसार, चतुर विनोदशील स्त्री थी। आते ही आते निरुपमा की गोद में कन्या देखी तो बोलीअरे यह क्या?
     सासभाग्य है और क्या?
     सुकेशीभाग्य कैसा? इसने महात्मा जी की बातें भुला दी होंगी। ऐसा तो हो ही नहीं सकता कि वह मुंह से जो कुछ कह दें, वह न हो। क्यों जी, तुमने मंगल का व्रत रखा?
     निरुपमाबराबर, एक व्रत भी न छोड़ा।
     सुकेशीपांच ब्राह्मणों को मंगल के दिन भोजन कराती रही?
     निरुपमायह तो उन्होंने नहीं कहा था।
    सुकेशीतुम्हारा सिर, मुझे खूब याद है, मेरे सामने उन्होंने बहुत जोर देकर कहा था। तुमने सोचा होगा, ब्राह्मणों को भोजन कराने से क्या होता है। यह न समझा कि कोई अनुष्ठान सफल नहीं होता जब तक  विधिवत् उसका पालन न किया जाये।
     सासइसने कभी इसकी चर्चा ही नहीं की;नहीं;पांच क्या दस ब्राह्मणों को जिमा देती। तुम्हारे धर्म से कुछ कमी नहीं है।
     सुकेशीकुछ नहीं, भूल हो गयी और क्या। रानी, बेटे का मुंह यों देखना नसीब नहीं होता। बड़े-बड़े जप-तप करने पड़ते हैं, तुम मंगल के व्रत ही से घबरा गयीं?
     सासअभागिनी है और क्या?
     घमंडीलालऐसी कौन-सी बड़ी बातें थीं, जो याद न रहीं? वह हम लोगों को जलाना चाहती है।
     सासवही तो कहूं कि महात्मा की बात कैसे निष्फल हुई। यहां सात बरसों ते तुलसी माई को दिया चढ़ाया, जब जा के बच्चे का जन्म हुआ।
     घमंडीलालइन्होंने समझा था दाल-भात का कौर है!
     सुकेशीखैर, अब जो हुआ सो हुआ कल मंगल है, फिर व्रत रखो और अब की सात ब्राह्मणों को जिमाओ, देखें, कैसे महात्मा जी की बात नहीं पूरी होती।
     घमंडीलाल-व्यर्थ है, इनके किये कुछ न होगा।
     सुकेशीबाबूजी, आप विद्वान समझदार होकर इतना दिल छोटा करते हैं। अभी आपककी उम्र क्या है। कितने पुत्र लीजिएगा? नाकों दम न हो जाये तो कहिएगा।
सासबेटी, दूध-पूत से भी किसी का मन भरा है।
     सुकेशीईश्वर ने चाहा तो आप लोगों का मन भर जायेगा। मेरा तो भर गया।
     घमंडीलालसुनती हो महारानी, अबकी कोई गोलमोल मत करना। अपनी भाभी से सब ब्योरा अच्छी तरह पूछ लेना।
     सुकेशीआप निश्चिंत रहें, मैं याद करा दूंगी; क्या भोजन करना होगा, कैसे रहना होगा कैसे स्नान करना होगा, यह सब लिखा दूंगी और अम्मा जी, आज से अठारह मास बाद आपसे कोई भारी इनाम लूंगी।
     सुकेशी एक सप्ताह यहां रही और निरुपमा को खूब सिखा-पढ़ा कर चली गयी।
5
निरुपमा का एकबाल फिर चमका, घमंडीलाल अबकी इतने आश्वासित से रानी हुई, सास फिर उसे पान की भांति फेरने लगी, लोग उसका मुंह जोहने लगे।
     दिन गुजरने लगे, निरुपमा कभी कहती अम्मां जी, आज मैंने स्वप्न देखा कि वृद्ध स्त्री ने आकर मुझे पुकारा और एक नारियल देकर बोली, यह तुम्हें दिये जाती हूं; कभी कहती,अम्मां जी, अबकी न जाने क्यों मेरे दिल में बड़ी-बड़ी उमंगें पैदा हो रही हैं, जी चाहता है खूब गाना सुनूं, नदी में खूब स्नान करूं, हरदम नशा-सा छाया रहता है। सास सुनकर मुस्कराती और कहतीबहू ये शुभ लक्षण हैं।
     निरुपमा चुपके-चुपके माजूर मंगाकर खाती और अपने असल नेत्रों से ताकते हुए घमंडीलाल से पूछती-मेरी आंखें लाल हैं क्या?
     घमंडीलाल खुश होकर कहतेमालूम होता है, नशा चढ़ा हुआ है। ये शुभ लक्षण हैं।
     निरुपमा को सुगंधों से कभी इतना प्रेम न था, फूलों के गजरों पर अब वह जान देती  थी।
     घमंडीलाल अब नित्य सोते समय उसे महाभारत की वीर कथाएं पढ़कर सुनाते, कभी गुरु गोविंदसिंह कीर्ति का वर्णन करते। अभिमन्यु की कथा से निरुपमा को बड़ा प्रेम था। पिता अपने आने वाले पुत्र को वीर-संस्कारों से परिपूरित कर देना चाहता था।
     एक दिन निरुपमा ने पति से कहानाम क्या रखोगे?
     घमंडीलालयह तो तुमने खूब सोचा। मुझे तो इसका ध्यान ही न रहा। ऐसा नाम होना चाहिए जिससे शौर्य और तेज टपके। सोचो कोई नाम।
     दोनों प्राणी नामों की व्याख्या करने लगे। जोरावरलाल से लेकर हरिश्चन्द्र तक सभी नाम गिनाये गये, पर उस असामान्य बालक के लिए कोई नाम न मिला। अंत में पति ने कहा तेगबहादुर कैसा नाम है।
     निरुपमाबस-बस, यही नाम मुझे पसन्द है?
     घमंडी लालनाम ही तो सब कुछ है। दमड़ी, छकौड़ी, घुरहू, कतवारू, जिसके नाम देखे उसे भी यथा नाम तथा गुण ही पाया। हमारे बच्चे का नाम होगा तेगबहादुर।
6
प्रसव-काल आ पहुंचा। निरुपमा को मालूम था कि क्या होने वाली है; लेकिन बाहर मंगलाचरण का पूरा सामान था। अबकी किसी को लेशमात्र भी संदेह न था। नाच, गाने का प्रबंध भी किया गया था। एक शामियाना खड़ा किया गया था और मित्रगण उसमें बैठे खुश-गप्पियां कर रहे थे। हलवाई कड़ाई से पूरियां और मिठाइयां निकाल रहा था। कई बोरे अनाज के रखे हुए  थे कि शुभ समाचार पाते ही भिक्षुकों को बांटे जायें। एक क्षण का भी विलम्ब न हो, इसलिए बोरों के मुंह खोल दिये गये थे।
     लेकिन निरुपमा का दिल प्रतिक्षण बैठा जाता था। अब क्या होगा? तीन साल किसी तरह कौशल से कट गये और मजे में कट गये, लेकिन अब विपत्ति सिर पर मंडरा रही है। हाय! निरपराध होने पर भी यही दंड! अगर भगवान् की इच्छा है कि मेरे गर्भ से कोई पुत्र न जन्म ले तो मेरा क्या दोष! लेकिन कौन सुनता है। मैं ही अभागिनी हूं मैं ही त्याज्य हूं मैं ही कलमुंही हूं इसीलिए न कि परवश हूं! क्या होगा? अभी एक क्षण में यह सारा आनंदात्सव शोक में डूब जायेगा, मुझ पर बौछारें पड़ने लगेंगी, भीतर से बाहर तक मुझी को कोसेंगे, सास-ससुर का भय नहीं, लेकिन स्वामी जी शायद फिर मेरा मुंह न देखें, शायद निराश होकर घर-बार त्याग दें। चारों तरफ अमंगल ही अमंगल हैं मैं अपने घर की, अपनी संतान की दुर्दशा देखने के लिए क्यों जीवित हूं। कौशल बहुत हो चुका, अब उससे कोई आशा नहीं। मेरे दिल में कैसे-कैसे अरमान थे। अपनी प्यारी बच्चियों का लालन-पालन करती, उन्हें ब्याहती, उनके बच्चों को देखकर सुखी होती। पर आह! यह सब अरमान झाक में मिले जाते हैं। भगवान्! तुम्ही अब इनके पिता हो, तुम्हीं इनके रक्षक हो। मैं तो अब जाती हूं।
     लेडी डॉक्टर ने कहावेल! फिर लड़की है।
     भीतर-बाहर कुहराम मच गया, पिट्टस पड़ गयी। घमंडीलाल ने कहाजहन्नुम में जाये ऐसी जिंदगी, मौत भी नहीं आ जाती!
     उनके पिता भी बोलेअभागिनी है, वज्र अभागिनी!
     भिक्षुकों ने कहारोओ अपनी तकदीर को हम कोई दूसरा द्वार देखते हैं।
     अभी यह शोकादगार शांत न होने पाया था कि डॉक्टर ने कहा मां का हाल अच्छा नहीं है। वह अब नहीं बच सकती। उसका दिल बंद हो गया है।