रा
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जपूत खानदान में पैदा हो जाने ही से कोई
सूरमा नहीं हो जाता और न नाम के पीछे ‘सिंह’
की दुम लगा देने ही से बहादुरी आती है। गजेन्द्र सिंह के पुरखे किस जमाने में
राजपूत थे इसमें सन्देह की गुंजाइश नहीं। लेकिन इधर तीन पुश्तों से तो नाम के सिवा
उनमें राजपूती के कोई लक्षण न थे। गजेन्द्र सिंह के दादा वकील थे और जिरह या बहस
में कभी-कभी राजपूती का प्रदर्शन कर जाते थे। बाप ने कपड़े की दुकान खोलकर इस
प्रदर्शन की भी गुंजाइश न रखी।और गजेन्द्र सिंह ने तो लूटीया ही डूबो दी। डील-डौल
में भी फर्क आता गया। भूपेन्द्र सिंह का सीना लम्बा-चौड़ा था नरेन्द्र सिंह का पेट
लम्बा-चौड़ा था, लेकिन गजेन्द्र सिंह
का कुछ भी लम्बा-चौड़ा न था। वह हलके-फुल्के, गोरे-चिट्टे, ऐनाकबाज, नाजुक बदन, फैशनेबुल बाबू थे।
उन्हें पढ़ने-लिखने से दिलचस्पी थी।
मगर
राजपूत कैसा ही हो उसकी शादी तो राजपूत खानदान ही में होगी। गजेन्द्र सिंह की शादी
जिस खानदान में हुई थी, उस खानदान में राजपूती जौहर बिलकुल फना न हुआ था। उनके ससुर
पेंशन सूबेदार थे। साले शिकारी और कुश्तीबाज। शादी हुए दो साल हो गए थे, लेकिन अभी तक एक बार
भी ससुराल न आ सका। इम्तहानों से फुरसत ही न मिलती थी। लेकिन अब पढ़ाई खतम हो चुकी
थी, नौकरी की तलाश थी।
इसलिये अबकी होली के मौके पर ससुराल से बुलावा आया तो उसने कोई हील-हुज्जत न की।
सूबेदार की बड़े-बड़े अफसरों से जान-पहचान थी, फौजी अफसरों की हुक्काम कितनी कद्र और
कितनी इज्जत करते हैं, यह उसे खूब मालूम था। समझा मुमकिन है, सूबेदार साहब की
सिफारिश से नायब तहसीलदारी में नामजद हो जाय। इधर श्यामदुलारी से भी साल-भर से
मुलाकात नहीं हुई थी। एक निशाने से दो शिकार हो रहे थे। नया रेशमी कोट बनवाया और
होली के एक दिन पहले ससुराल जा पहुंचा। अपने गराण्डील सालों के सामने बच्चा-सा
मालूम होता था।
तीसरे
पहर का वक्त था, गजेन्द्र सिंह अपने
सालों से विद्यार्थी काल के कारनामें बयान कर रहा था। फूटबाल में किस तरह एक देव
जैसे लम्बे-तड़ंगे गोरे को पटखनी दी, हाकी मैच मे किस तरह अकेले गोल कर लिया, कि इतने में सूबेदार
साहब देव की तरह आकर खड़े हो गए और बड़े लड़के से बोले—अरे
सुनों, तुम यहां बैठे क्या
कर रहे हो। बाबू जी शहर से आये है, इन्हें लेजा कर जरा जंगल की सैर करा
लाओ। कुछ शिकार-विकार खिलाओ। यहा ठंठर-वेठर तो है नहीं, इनका जी घबराता
होगा। वक्त भी अच्छा है, शाम तक लौट आओगे।
शिकार
का नाम सुनते ही गजेन्द्र सिंह की नानी मर गई। बेचारे ने उम्र-भर कभी शिकार न खेला
था। यह देहाती उजड़ लौंडे उसे न जाने कहां-कहां दौड़ाएंगे, कहीं किसी जानवर का
सामना हो गया तो कहीं के न रहे। कौन जाने हिरन ही चोट कर बैठे। हिरन भी तो भागने
की राह न पाकर कभी-कभी पलट पड़ता है। कहीं भेड़िया निकल आये तो काम ही तमाम कर दे।
बोले—मेरा तो इस वक्त शिकार खेलने को जी नहीं चाहता, बहुत थक गया हूं।
सूबेदार
साहब ने फरमाया—तुम घोड़े पर सवार हो लेना। यही तो देहात की बहार है। चुन्नू, जाकर बन्दूक ला, मैं भी चलूंग। कई
दिन से बाहर नहीं निकला। मेरा राइफल भी लेते आना।
चुन्नू
और मुन्नू खूश-खूश बन्दूक लेने दौड़े, इधर गजेन्द्र की जान सूखने लगी। पछता
रहा था कि नाहक इन लौडों के साथ गप-शप करने लगा। जानता कि यह बला सिर पर आने वाली
है, तो आते ही फौरन
बीमार बानकर चारपाई पर पड़ रहाता। अब तो कोई हीला भी नहीं कर सकता। सबसे बड़ी
मुसीबत घोड़े की सवारी। देहाती घोड़े यो ही थान पर बंधे-बंधे टर्रे हो जाते हैं और
आसन का कच्चा सवार देखकर तो वह और भी शेखियां करने लगते हैं। कहीं अलफ हो गया मुझे
लेकर किसी नाले की तरफ बेतहाशा भागा तो खैरियत नहीं।
दोनों
सालों बन्दूके लेकर आ पहुंचे। घोड़ा भी खिंचकर आ गया। सूबेदार साहब शिकारी कपड़े
पहन कर तैयार हो गए। अब गजेन्द्र के लिए कोई हीला न रहा। उसने घोड़े की तरफ
कनाखियों से देखा—बार-बार जमीन पर पैर पटकता था,हिनहिनाता था, उठी हुई गर्दन, लाला आंखें, कनौतियां खड़ी, बोटी-बोटी फड़क रही
थी। उसकी तरफ देखते हुए डर लगता था। गजेन्द्र दिल में सहम उठा मगर बहादूरी दिखाने
के लिए घोड़े के पास जाकर उसके गर्दन पर इस तरह थपकियां दीं कि जैसे पक्का शहसवार
हैं, और बोला—जानवर
तो जानदार है मगर मुनासिब नहीं मालूम होता कि आप लोगो तो पैदल चले और मैं घोड़े पर
बैठूं। ऐसा कुछ थका नहीं। मैं भी पैदल ही चलूगां, इसका मुझे अभ्यास
है।
सूबेदार ने कहा-बेटा, जंगल दूर है, थक जाओगे। बड़ा सीधा
जानवर हैं, बच्चा भी सवार हो
सकता है।
गजेन्द्र
ने कहा-जी नहीं, मुझे भी यो ही चलने
दीजिए। गप-शप करते हुए चलेंगे। सवारी में वह लुफ्त कहां आप बुजर्ग हैं, सवार हो जायं।
चारों
आदमी पैदल चले। लोगों पर गजेन्द्र की इस नम्रता का बहुत अच्छा असर हुआ। सम्यता और
सदाचार तो शहर वाले ही जानते हैं। तिस पर इल्म की बरक।
थोड़ी
दूर के बाद पथरीला रास्ता मिला। एक तरफ हरा-भरा मैदान दूसरी तरफ पहाड़ का सिलसिला।
दोनों ही तरफ बबूल, करील, करौंद और ढाक के जंगल थे। सूबेदार साहब अपनी-फौजी जिन्दगी के
पिटे हुए किस्से कहते चले आते थे। गजेन्द्र तेज चलने की कोशिश कर रहा था। लेकिन
बार-बार पिछड़ जाता था। और उसे दो-चार कदम दौड़कर उनके बराबर होना पड़ता था। पसीने
से तर हांफता हुआ, अपनी बेवकूफी पर
पछताता चला जाता था। यहां आने की जरुरत ही क्या थी, श्यामदुलारी
महीने-दो-महीने में जाती ही। मुझे इस वक्त कुत्तें की तरह दौड़ते आने की क्या
जरुरत थी। अभी से यह हाल है। शिकार नजर आ गया तो मालूम नहीं क्या आफत आएगी।
मील-दो-मील की दौड़ तो उनपके लिए मामूली बात है मगर यहां तो कचूमर ही निकल जायगा।
शायद बेहोश होकर गिर पडूं। पैर अभी से मन-मन-भर के हो रहे थे।
यकायक
रास्ते में सेमल का एक पेड़ नजर आया। नीचे-लाल-लांल फूल बिछे हुए थे, ऊपर सारा पेड़
गुलनार हो राह था। गजेन्द्र वहीं खड़ा हो गया और उस पेड़ को मस्ताना निगाहों से
देखने लगा।
चुन्नू
ने पूछा-क्या है जीजा जी, रुक कैसे गये?
गजेन्द्र
सिंह ने मुग्ध भाव से कहा—कुछ नहीं, इस पेड़ का आर्कषक
सौन्दर्य देखकर दिल बाग-बाग हुआ जा रहा है। अहा, क्या बहार है, क्या रौनक है, क्या शान है कि जैसे
जंगल की देवी ने गोधूलि के आकाश को लज्जित करने के लिए केसरिया जोड़ा पहन लिया हो
या ऋषियों की पवित्र आत्माएं अपनी शाश्वत यात्रा में यहा आराम कर रही हों, या प्रकृति का मधुर
संगीत मूर्तिमान होकर दुनिया पर मोहिनी मन्त्र डाल रहा हो आप लोग शिकार खेलने जाइए, मुझे इस अमृत से
तृप्त होने दीजिए।
दोनों
नौजवान आश्चर्य से गजेन्द्र का मुंह ताकने लगे। उनकी समझ ही में न आया कि यह महाशय
कह क्या रहे हैं। देहात के रहने वाले जंगलों में घूमनेवाले, सेमल उनके लिए कोई
अनोखी चीज न थी। उसे रोज देखते थे, कितनी ही बार उस पर चढ़े, थे उसके नीचे दौड़े
थे, उसके फूलों की गेंद
बनाकर खेले थे, उन पर यह मस्ती कभी
न छाई थी, सौंदर्य का उपभोग
करना बेचारे क्या जाने।
सूबेदार
साहब आगे बढ़ गये थे। इन लोगों को ठहरा हुआ देखकर लौट ओये और बोले—क्यों
बेटा ठहर क्यों गये?
गजेन्द्र
ने हाथ जोड़कर कहा-आप लोग मुझे माफ कीजिए, मैं शिकार खेलने न जा सकूंगा। फूलों की
यह बहार देखकर मुझ पर मस्ती-सी छा गई हैं, मेरी आत्मा स्वर्ग के संगीत का मजा ले
रही है। अहा, यह मेरा ही दिल जो
फूल बनकर चमक रहा है। मुझ में भी वही लाली है, वहीं सौंदर्य है, वही रस है। मेरे
ह्दय पर केवल अज्ञानता का पर्दा पड़ा हुआ है। किसका शिकार करें? जंगल के मासूम
जानवारों का? हमीं तो जानवर हैं, हमीं तो चिड़ियां
हैं, यह हमारी ही
कल्पनाओं का दर्पण है जिसमें भौतिक संसार की झलक दिखाई पड़ रही है। क्या अपना ही
खून करें? नहीं, आप लोग शिकार करने
जांय, मुझे इस मस्ती और
बहार में डूबकर इसका आन्नद उठाने दें। बल्कि मैं तो प्रार्थना करुगां कि आप भी
शिकार से दूर रहें। जिन्दगी खुशियों का खजाना हैं उसका खून न कीजिए। प्रकृति के
दृश्यों से अपने मानस-चक्षुओं को तृप्त कीजिए। प्रकृति के एक-एक कण में, एक-एक फूल में, एक-एक पत्ती में इसी
आन्नद की किरणों चकम रही हैं। खून करके आन्नद के इस अक्षय स्रोत को अपवित्र न
कीजिए।
इस
दर्शनिक भाषण ने सभी को प्रभावित कर दिया। सूबेदार ने चुन्नू से धीमे से कहा—उम्र
तो कुछ नहीं है लेकिन कितना ज्ञान भरा हुआ है। चुन्नू ने भी अपनी श्रृद्धा को
व्यक्त किया—विद्या से ही आत्मा जाग जाती है, शिकार खेलना है
बुरा।
सूबेदार
साहब ने ज्ञानियों की तरह कहा—हां, बुरा तो है, चलो लौट चलें। जब
हरेक चीज में उसी का प्रकाश है, तो शिकार कौन और शिकार कौन अब कभी शिकार न खेलूंगा।
फिर
वह गजेन्द्र से बोले-भइया, तुम्हारे उपदेश ने हमारी आंखें खोल दीं। कसम खाते हैं, अब कभी शिकार न
खेलेगे।
गजेन्द्र
पर मस्ती छाई हुई थी, उसी नशे की हालत में बोला-ईश्वर को लाख-लाख धन्यवाद है कि
उसने आप लोगों को यह सदबुद्धि दी। मुझे खुद शिकार का कितना शौक था, बतला नहीं सकता।
अनगिनत जंगली सूअर, हिरन, तुंदुए, नीलगायें, मगर मारे होंगे, एक बार चीते को मार डाला। मगर आज ज्ञान
की मदिरा का वह नशा हुआ कि दुनिया का कहीं अस्तित्त्व ही नहीं रहा।
२
हो
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ली जलाने का मुर्हूत नौ बजे रात को था।
आठ ही बजे से गांव के औरत-मर्द, बूढ़े-बच्चे गाते-बजाते कबींरे उड़ाते होली की तरफ चले।
सूबेदार साहब भी बाल-बच्चों को लिए मेहमान के साथ होली जलाने चले।
गजेन्द्र
ने अभी तक किसी बड़े गांव की होली न देखी थी। उसके शहर में तो हर मुहल्ले में
लकड़ी के मोटे-मोटे दो चार कुन्दे जला दिये जाते थे, जो कई-कई दिन तक
जलते रहते थे। यहां की होली एक लम्बे-चौड़े मैदान में किसी पहाड़ की ऊंची चोटी की
तरह आसमान से बातें कर रही थी। ज्यों ही पंडित जी ने मंत्र पढ़कर नये साल का
स्वागत किया, आतिशबाजी छूटने लगी।
छोटे-बड़े सभी पटाखे, छछूंदरे, हवाइयां छोड़ने लगे। गजेन्द्र के सिर पर से कई छछूंदर सनसनाती
हुई निकल गईं। हरेक पटाखे पर बेचार दो-दो चार-चार कदम पीछे हट जाता था और दिल में
इस उजड़ देहातियां को कोसता था। यह क्या बेहूदगी है, बारुद कहीं कपड़े
में लग जाय, कोई और दुर्घटना हो
जाय तो सारी शरारत निकल जाए। रोज ही तो ऐसी वारदातों होती रहती है, मगर इन गंवारों क्या
खबर। यहां दादा न जो कुछ किया वही करेंगे। चाहे उसमें कुछ तुक हो या न हो
अचानक
नजदीक से एक बमगोल के छूटने की गगनभेदी आवज हुई कि जैसे बिजली कड़की हो। गजेन्द्र
सिंह चौंककर कोई दो फीट ऊंचे उछल गए। अपनी जिन्दगी में वह शायद कभी इतना न कूदे
थे। दिल धक-धक करने लगा, गोया तोप के निशाने के सामने खड़े हों। फौरन दोनों कान
उंगलियों से बन्द कर लिए और दस कदम और पीछे हट गए।
चुन्नू
ने कहा—जीजाजी, आप क्या छोड़ेंगे, क्या लाऊं?
मुन्नू
बाला-हवाइयां छोड़िए जीजाजी, बहुत अच्छी है। आसमान में निकल जाती हैं।
चुन्नू-हवाइयां
बच्चे छोड़ते हैं कि यह छोड़ेगे? आप बमगोला छोड़िए भाई साहब।
गजेन्द्र—भाई, मुझे इन चीजों का
शौक नहीं। मुझे तो ताज्जुब हो रहा है बूढ़े भी कितनी दिलचस्पी से आतिशबाजी छुड़ा
रहे हैं।
मुन्नू-दो-चार
महाताबियां तो जरुर छोड़िए।
गजेन्द्र
को महताबियां निरापद जान पड़ी। उनकी लाल, हरी सुनहरी चमक के साचमने उनके गोरे
चेहरे और खूबसूरत बालों और रेशमी कुर्तें की मोहकता कितनी बढ़ जायगी। कोई खतरे की
बात भी नहीं। मजे से हाथ में लिए खड़े हैं, गुल टप-टप नीचे गिर रहा है ओर सबकी निगाहें
उनकी तरफ लगी हुई हैं उनकी दार्शनिक बुद्धि भी आत्मप्रदर्शन की लालसा से मुक्त न
थी। फौरन महताबी ले ली, उदासीनता की एक अजब शान के साथ। मगर पहली ही महताबी छोड़ना
शुरु की थी कि दुसरा बमगोला छूटा। आसमान कांप उठा। गजेन्द्र को ऐसा मालूम हुआ कि
जैसे कान के पर्दे फट गये या सिर पर कोई हथौड़ा-गिर पड़ा। महताबी हाथ से छूटकर गिर
पड़ी और छाती धड़कने लगी। अभी इस धामके से सम्हलने ने पाये थे कि दूसरा धमाका हुआ।
जैसे आसमान फट पड़ा। सारे वायुमण्डल में कम्पन-सा आ गया, चिड़िया घोंसलों से
निकल निकल शोर मचाती हुई भागी, जानवर रस्सियां तुड़ा-तुड़ाकर भागे और गजेन्द्र भी सिर पर
पांव रखकर भागे, सरपट, और सीधे घर पर आकर
दम लिया। चुन्नू और मुन्नू दोनों घबड़ा गए। सूबेदार साहब के होश उड़ गए। तीनों
आदमी बगटुट दौड़े हुए गजेन्द्र के पीछे चले। दूसरों ने जो उन्हें भागते देखा तो
समझे शायद कोई वारदात हो गई। सबके सब उनके पीछे हो लिए। गांव में एक प्रतिष्ठित
अतिथि का आना मामूली बात न थी। सब एक-दूसरे से पूछ रहे थे—मेहमान
को हो क्या गया? माजरा क्या हैं? क्यों यह लोग दौड़े
जा रहे हैं।
एक
पल में सैकड़ों आदमी सूबेदार साहब के दरवाजे पर हाल-चाल पूछने लिए जमा हो गए। गांव
का दामाद कुरुप होने पर भी दर्शनीय और बदहाल होते हुए भी सबका प्रिय होता है।
सूबेदार
ने सहमी हुई आवाज में पूछा-तुम वहां से क्यों भाग आए, भइया।
गजेन्द्र को क्या
मालूम था कि उसके चले आने से यह तहलका मच जाएगा। मगर उसके हाजिर दिमाग ने जवाब सोच
लिया था और जवाब भी ऐसा कि गांव वालों पर उसकी अलौकिक दृष्टि की धाक जमा दे।
बोला—कोई
खास बात न थी, दिल में कुछ ऐसा ही
आया कि यहां से भाग जाना चाहिए।
‘नहीं, कोई बाता जरुर थी।’
‘आप
पूछकर क्या करेंगे? मैं उसे जाहिर करके आपके आन्नद में विध्न ’नहीं
डालना चाहता।’
‘जब
तक बतला न दोगे बेटा, हमें तसल्ली नहीं होगी। सारा गांव घबराया हुआ है।’
गजेन्द्र
ने फिर सूफियों का-सा चेहरा बनाया, आंखें बन्द कर लीं, जम्हाइयां लीं और
आसमान की तरफ देखकर- बोले –बात यह है कि ज्यों ही मैंने महताबी हाथ
में ली, मुझे मालूम हुआ जैसे
किसी ने उसे मेरे हाथ से छीनकर फेंक दिया। मैंने कभी आतिशबाजियां नहीं छोड़ी, हमेशा उनको बुरा—भला
कहता रहा हूं। आज मैंने वह काम किया जो मेरी अन्तरात्मा के खिलाफ था। बस गजब ही तो
हो गया। मुझे ऐसा मालूम हुआ जैसे मेरी आत्मा मुझे धिक्कार रही है। शर्म से मेरी
गर्दन झुक गई और मैं इसी हालत में वहां से भागा। अब आप लोग मुझे माफ करें मैं आपको
जशन में शरीक न हो सकूंगा।
सूबेदारा
साहब ने इस तरह गर्दन हिलाई कि जैसे उनके सिवा वहां कोई इस अध्यात्मा का रहस्य
नहीं समझ सकता। उनकी आंखें कह रही थीं—आती हैं तुम लोगों की
समझ में यह बातें? तुम भला क्या समझोगे, हम भी कुछ-कुछ ही
समझते हैं।
होली
तो नियत समय जलाई गई थी मगर आतिशबाजीयां नदी में डाल दी गईं। शरीर लड़को ने कुछ
इसलिए छिपाकर रख लीं कि गजेन्द्र चले जाएंगे तो मजे से छुड़ाएंगे।
श्यामदुलारी
ने एकान्त में कहा—तुम तो वहां से खूब भागे|
गजेन्द्र
अकड़ कर बोले-भागता क्यों, भागने की तो कोई बात न थी।
‘मेरी
तो जान निकल गई कि न मालूम क्या हो गया। तुम्हारे ही साथ मैं भी दौड़ी आई। टोकरी-भर
आतिशबाजी पानी में फेंक दी गई।’
‘यह
तो रुपये को आग में फूंकना हैं।’
‘होली
में भी न छोड़े तो कब छोड़े। त्यौहार इसीलिए तो आते हैं।’
‘त्यौहार
में गाओ-बजाओ, अच्छी-अच्छी चीजें
पकाओ-खाओ, खैरात करो, या-दोस्तों से मिलों, सबसे मुहब्बत से पेश
आओ, बारुद उड़ने का नाम
त्यौहार नहीं है।’
रात
को बारह बज गये थे। किसी ने दरवाजे पर धक्का मारा, गजेन्द्र ने चौंककर
पूछा—यह धक्का किसने मारा?
श्यामा
ने लापरवाही से कहा-बिल्ली-बिल्ली होगी।
कई
आदमियों के फट-फट करने की आवाजें आईं, फिर किवाड़ पर धक्का पड़ा। गजेन्द्र को
कंपकंपी छूट गई, लालटेन लेकर दराज से
झांक तो चेहरे का रंग उड़ गया—चार-पांच आदमी कुर्ते पहने, पगड़ियां बाधे, दाढ़ियां लगाये, कंधे पर बन्दूकें
रखे, किवाड़ को तोड़
डालने की जबर्दस्त कोशिश में लगे हुए थे। गजेन्द्र कान लगाकर बातें सुनने लगा—
‘दोनों
सो गये हैं, किवाड़ तोड़ डालो, माल अलमारी में है।’
‘और
अगर दोनों जाग गए?’
‘औरत
क्या कर सकती हैं, मर्द को चारपाई से
बांध देंगे।’
‘सुनते
है गजेन्द्र सिंह कोई बड़ा पहलवान हैं।’
‘कैसा
ही पहलवान हो, चार हथियारबन्द
आदमियों के सामने क्या कर सकता है।’
गजेन्द्र
के कोटो तो बदन में खून नहीं शयामदुलारी से बोले-यह डाकू मालूम होते हैं। अब क्या
होगा, मेरे तो हाथ-पांव
कांप रहे है
चोर-चोर
पुकारो, जाग हो जाएगी, आप भाग जाएगे। नहीं
मैं चिलाती हूं। चोर का दिल आधा।’
‘ना-ना, कहीं ऐसा गजब न
करना। इन सबों के पास बन्दूके हैं। गांव में इतना सन्नाटा क्यों हैं? घर के आदमी क्या हुए?’
‘भइया
और मुन्नू दादा खलिहान में सोने गए हैं, काका दरवाजे पर पड़े होंगे, उनके कानों पर तोप
छूटे तब भी न जागेंगे।’
‘इस
कमरे में कोई दूसरी खिड़की भी तो नहीं है कि बाहर आवाज पहुंचे। मकान है या कैदखाने’
‘मै
तो चिल्लाती हूं।’
‘अरे
नहीं भाई, क्यों जान देने पर
तुली हो। मैं तो सोचता हूं, हम दोनों चुपचाप लेट जाएं और आंखें बन्द कर लें। बदमाशों को
जो कुछ ले जाना हो ले जांए, जान तो बचे। देखों किवाड़ हिल रहे हैं। कहीं टूट न जाएं। हे
ईश्वर, कहां जाएं, इस मुसीबत में
तुम्हारा ही भरोसा है। क्या जानता था कि यह आफत आने वाली हैं, नही आता ही क्यों? बसा चुप्पी ही साध
लो। अगर हिलाएं-विलाएं तो भी सांस मत लेना।’
‘मुझसे
तो चुप्पी साधकर पड़ा न रहा जाएगा।’
‘जेवर
उतारकर रख क्यों नहीं देती, शैतान जेवर ही तो लेंगे।’
‘जेवर
तो न उतारुंगी चाहे कुछ ही क्यों न हो जाय।’
‘क्यों
जान देने पर तुली हुई हो?’
खुशी से तो जेवर न
उतारुंगी, जबर्दस्ती ओर बात
हैं’
खामोशी, सुनो सब क्या बातें
कर रहे हैं।’
बाहर से आवाज आई—किवाड़
खोल दो नहीं तो हम किवाड़ तोड़ कर अन्दर आ जाएंगे।
गजेन्द्र श्यामदुलीरी
की मिन्नत की—मेरी मानो श्यामा, जेवर उतारकर रख दो, मैं वादा करता हूं
बहूत जल्दी नये जेवर बनवा दूंगा।
बाहर
से आवाज आई-क्यों, आई!
बस एक मिनट की मुहलत और देते हैं, अगर किवाड़ न खोले तो खैरियत नहीं।
गजेन्द्र
ने श्यामदुलारी से पूछा—खोल दूं?
‘हा, बुला लो तुम्हारे
भाई-बन्द हैं? वह दरवाजे को बाहर
से ढकेलते हैं, तुम अन्दर से बाहर
को ठेली।’
‘और
जो दरवाजा मेरे ऊपर गिर पड़े? पांच-पांच जवान हैं!’
‘वह
कोने में लाठी रखी है, लेकर खड़े हो जाओ।’
‘तुम
पागल हो गई हो।’
‘चुन्नी
दादा होते तो पांचों का गिरते।’
‘मैं
लट्टाबाज नहीं हूं।’
‘तो
आओ मुंह ढांपकर लेट जाओं, मैं उन सबों से समझ लूंगी।’
‘तुम्हें
तो और समझकर छोड़ देंगे, माथे मेरे जाएगी।’
‘मैं
तो चिल्लाती हूं।’
‘तुम
मेरी जान लेकर छोड़ोगी!
‘मुझसे
तो अब सब्र नहीं होता, मैं किवाड़ खोल देती हूं।’
उसने दरवाजा खोल
दिया। पांचों चोर में भड़भड़कर घुस आए। एक ने अपने साथी से कहा—मैं
इस लौंडे को पकड़े हुए हूं तुम औरत के सारे गहने उतार लो।
दूसरा
बोला-इसने तो आंखों बन्द कर लीं। अरे, तुम आंखें क्यों नहीं खोलती जी?
तीसरा-यार, औरत तो हसीन है!
चौथा—सुनती
है ओ मेहरिया, जेवर दे दे नहीं गला
घोंट दूंगा।
गजेन्द्र
दिल में बिगड़ रहे थे, यह चुड़ैल जेवर क्यों नही उतार देती।
श्यामादुलीरी
ने कहा—गला घोंट दो, चाहे गोली मार दो जेवर न उतारूंगी।
पहला—इस
उठा ले चलो। यों न मानेगी, मन्दिर खाली है।
दूसरा—बस, यही मुनासिब है, क्यों रे छोकरी, हामारे साथ चलेगी?
श्यामदुलारी—तुम्हारे
मुहं में कालिख लगा दूंगी।
तीसरा—न
चलेगी तो इस लौंडे को ले जाकर बेच डालेंगे।
श्यामा—एक-एक
के हथकड़ी लगवा दूंगी।
चौथा—क्यों
इतना बिगड़ती है महारानी, जरा हमारे साथ चली क्यो नहीं चलती। क्या हम इस लौंडें से भी
गये-गुजरे है। क्या रह जाएगा, अगर हम तुझे जबर्दस्ती उठा ले जाएंगे। यों सीधी तरह नहीं
मानती हो। तुम जैसी हसीन औरत पर जुल्म करने को जी नहीं चाहता।
पांचवां—या
तो सारे जेवर उतारकर दे दो या हमारे साथ चालो।
श्यामदुलारी—काका
आ आएंगे तो एक-एक की खाल उधेड़ डालेंगे।
पहला—यह
यों न मानेगी, इस लौंडें को उठा ले
चलो। तब आप ही पैरों पड़ेगी।
दो
आदमियों ने एक चादर से गजेन्द्र के हाथ-पांव बांधे। गजेन्द्र मुर्दे की तरह पड़े
हुए थे, सांस तक न आती थी, दिल में झुंझला रहे
थे—हाय कितनी बेवफा औरत है, जेवर न देगी चाहे यह सब मुझे जान से
मार डालें। अच्छा, जिन्दा बचूंगा तो
देखूंगा। बात तक तो पूछूं नहीं।
डाकूओं
ने गजेन्द्र को उठा लिया और लेकर आंगन में जा पहुंचे तो श्यामदुलारी दरवाजे पर
खड़ी होकर बोली—इन्हें छोड़ दो तो मैं तुम्हारे साथ चलने को तैयार हूं।
पहला—पहले
ही क्यों न राजी हो गई थी। चलेगी न?
श्यामदुलारी—चलूंगी।
कहती तो हूं
तीसरा—अच्छा
तो चल। हम इसे इसे छोड़ देते है।
दोनों
चोरों ने गजेन्द्र को लाकर चारपाई पर लिटा दिया और श्यामदुलारी को लेकर चले दिए।
कमरे में सन्नाटा छा गया। गजेन्द्र ने डरते-डरते आंखें खोलीं, कोई नजर न आया। उठकर
दरवाजे से झांका। सहन में भी कोई न था। तीर की तरह निकलकर सदर दरवाजे पर आए लेकिन
बाहर निकलने का हौसला न हुआ। चाहा कि सूबेदार साहब को जगाएं, मुंह से आवाज न
निकली।
उसी
वक्त कहकहे की आवाज आई। पांच औरतें चुहल करती हुई श्यामदुलारी के कमरे में आईं।
गजेन्द्र का वहां पता न था।
एक—कहां
चले गए?
श्यामदुलारी—बाहर
चले गए होगें।
दूसरी—बहुत
शर्मिन्दा होंगे।
तीसरी—डर
के मारे उनकी सांस तक बन्द हो गई थी।
गजेन्द्र ने बोलचाल
सुनी तो जान में जान आई। समझे शायद घर में जाग हो गईं। लपककर कमरे के दरवाजें पर
आए और बोले—जरा देखिए श्यामा कहां हैं, मेरी तो नींद ही न खुली। जल्द किसी को
दौड़ाइए।
यकायक
उन्हीं औरतों के बीच में श्यामा को खड़क हंसते देखकर हैरत में आ गए।
पांचों
सहेलियों ने हंसना और तालियां पीटना शुरु कर दिया।
एक
ने कहा—वाह जीजा जी, देख ली आपकी बहादुरी।
श्यामदुलारी—तुम
सब की सब शैतानी हो।
तीसरी—बीवी
तो चोरों के साथ चली गईं और आपने सांस तक न ली!
गजेन्द्र
समझ गए, बड़ा धोखा खाया। मगर
जबान के शेर फौरन बिगड़ी बात बना ली, बाले—तो क्या करता, तुम्हारा स्वांग
बिगाड़ देता! मैं भी इस तमाशे का मजा ले रहा था। अगर सबों को पकड़कर मूंछे
उखाड़ लेता तो तुम कितन शर्मिन्दा होतीं। मैं इतना बेरहम नहीं हूं।
सब
की सब गजेन्द्र का मुंह देखती रह गईं।
---वारदात से
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