जी
|
वनदास नाम का एक गरीब मदारी अपने बन्दर
मन्नू को नचाकर अपनी जीविका चलाया करता था। वह और उसकी स्त्री बुधिया दोनों मन्नू
का बहुत प्यार करते थे। उनके कोई सन्तान न थी, मन्नू ही उनके स्नेह और प्रेम का पात्र
था दोनों उसे अपने साथ खिलाते और अपने साथ सुलाते थे: उनकी दृष्टि में मन्नू से
अधिक प्रिय वस्तु न थी। जीवनदास उसके लिए एक गेंद लाया था। मन्नू आंगन में गेंद
खेला करता था। उसके भोजन करने को एक मिट्टी का प्याला था, ओढ़ने को कम्बल का
एक टुकड़ा, सोने को एक बोरिया, और उचके के लिए
छप्पर में एक रस्सी। मन्नू इन वस्तुओं पर जान देता था। जब तक उसके प्याले में कोई
चीज न रख दी जाय वह भोजन न करता था। अपना टाट और कम्बल का टुकड़ा उसे शाल और गद्दे
से भी प्यारा था। उसके दिन बड़े सुख से बीतते थे। वह प्रात:काल रोटियां खाकर मदारी
के साथ तमाशा करने जाता था। वह नकलें करने मे इतना निपुण था कि दर्शकवृन्द तमाशा
देखकर मुग्ध हो जाते थे। लकड़ी हाथ में लेकर वृद्धों की भांति चलता, आसन मारकर पूजा करता, तिलक-मुद्रा लगाता, फिर पोथी बगल में
दबाकर पाठ करने चलता। ढोल बजाकर गाने की नकल इतनी मनोहर थी कि इर्शक लोट-पोट हो जाते
थे। तमाशा खतम हो जाने पर वो सबको सलाम करता था, लोगों के पैर पकड़कर
पैसे वसूल करता था। मन्नू का कटोर पैसों से भर जाता था। इसके उपरान्त कोई मन्नू को
एक अमरुद खिला देता, काई उसके सामने मिठाई फेंक देता। लड़कों को तो उसे देखने से
जी ही न भरता था। वे अपने-अपने घर से दौड़-दौड़कर रोटियां लाते और उसे खिलाते थे।
मुहल्ले के लोगों के लिए भी मन्नू मनोरंजन की एक सामग्री थी। जब वह घर पर रहता तो
एक न एक आदमी आकर उससे खेलता रहाता। खोंचेवाले फेरी करते हुए उसे कुछ न कुछ दे
देते थे। जो बिना दिए निकल जाने की चेष्टा करता उससे भी मन्नू पैर पकड़ कर वसूल कर
लिया था, क्योंकि घर पर वह
खुला रहता था मन्नू को अगर चिढ़ थी तो कुत्तों से। उसके मारे उधर से कोई कुत्ता न
निकलने पाता था और कोई आ जाता, तो मन्नू उसे अवश्य ही दो-चार कनेठियां और झॉँपड़ लगाता था।
उसके सर्वप्रिया होने का यह एक और कारण था। दिन को कभी-कभी बुधिया धूप में लेट
जाती, तो मन्नू उसके सिर
की जुएं निकालता और वह उसे गाना सुनाती। वह जहां कहीं जाती थी वहीं मन्नू उसके
पीछे-पीछे जाता था। माता और पुत्र में भी इससे अधिक प्रेम न हो सकता था।
२
ए
|
क दिन मन्नू के जी में आया कि चलकर कहीं
फल खाना चाहिए। फल खाने को मिलते तो थे पर वृक्षों पर चढ़कर डालियों पर उचकने, कुछ खाने और कुछ
गिराने में कुछ और ही मजा था। बन्दर विनोदशील होते ही हैं, और मन्नू में इसकी
मात्रा कुछ अधिक थी भी। कभी पकड़-धकड़ और मारपीट की नौबत न आई थी। पेड़ों पर चढ़कर
फल खाना उसको स्वाभाविक जान पड़ता था। यह
न जानता था कि वहां प्राकृतिक वस्तुओं पर भी न किसी की छाप लगी हुई है, जल, वायु प्रकाश पर भी
लोगों ने अधिकार जमा रक्खा है, फिर बाग-बगीचों का तो कहना ही क्या। दोपहर को जब जीवनदास
तमाशा दिखाकर लौटा, तो मन्नू लंबा हुआ। वह यो भी मुहल्ले में चला जाया करता था, इसलिए किसी को संदेह
न हुआ कि वह कहीं चला गया। उधर वह घूमता-घामता खपरैलौं पर उछलता-कूदता एक बगीचे
में जा पहुंचा। देखा तो फलों से पेड़ लदे हुए हैं। आंवलो, कटहल, लीची, आम, पपीते वगैरह लटकते
देखकर उसका चित्त प्रसन्न हो गया। मानो वे वक्षृ उसे अपनी ओर बुला रहे थे कि खाओ, जहां तक खाया जाय, यहां किसी रोक-टोक
नहीं है। तुरन्त एक छलांग मारकर चहारदीवारी पर चढ़ गया। दूसरी छलांग में पेड़ों पर
जा पहुंचा, कुछ आम खाये, कुछ लीचियां खाई।
खुशी हो-होकर गुठलिया इधर-उधर फेंकना शुरु किया। फिर सबसे ऊंची डाल पर जा पहुंचा
और डालियों को हिलाने लगा। पके आम जमीन पर बिछ गए। खड़खड़ाहट हुई तो माली दोपहर की
नींद से चौंका और मन्नू को देखते ही उसे पत्थरों से मारने लगा। पर या तो पत्थर
उसके पास तक पहुंचते ही न थे या वह सिर और शरीर हिलाकर पत्थरों को बचा जाता था। बीच-बीच
में बांगबान को दांत निकालकर डराता भी था। कभी मुंह बनाकर उसे काटने की धमकी भी
देता था। माली बुदरघुड़कियों से डरकर भागता था, और फिर पत्थर लेकर आ जाता था। यह कौतुक
देखकर मुहल्ले के बालक जमा हो गए, और शोर मचाने लगे—
ओ बंदरवा लोयलाय, बाल उखाडू टोयटाय।
ओ बंदर तेरा मुंह है
लाल, पिचके-पिचके तेरे
गाल।
मगर गई
नानी बंदर की,
टूटी
टांग
मुछन्दर की।
मन्नू को इस शोर-गुल
में बड़ा आनन्द आ रहा था। वह आधे फल खा-खाकर नीचे गिरता था और लड़के लपक-लपकक चुन
लेते और तालियां बजा-बजाकर कहते थे—
बंदर मामू और,
कहा तुम्हारा ठौर।
माली ने जब देखा कि
यह विप्लव शांत होने में नहीं आता, तो जाकर अपने स्वामी को खबर दी। वह
हजरत पुलिस विभाग के कर्मचारी थे। सुनते ही जामे से बाहर हो गए। बंदर की इतनी मजाल
कि मेरे बगीचे में आकर ऊधम मचावे। बंगले का किराया मैं देता हूं, कुछ बंदर नहीं देता।
यहां कितने ही असहयोगियों को लदवा दिया, अखबारवाले मेरे नाम से कांपते हैं, बंदर की क्या हस्ती
है! तुरन्त बन्दूक उठाई, और बगीचे में आ पहुचें। देखों मन्नू एक
पेड़ को जोर-जोर से हिला रहा था। लाल हो गए, और उसी तरफ बन्दूक तानी। बन्दूक देखते
ही मन्नू के होश उड़ गए। उस पर आज तक किसी ने बन्दूक नहीं तानी थी। पर उसने बन्दूक
की आवाज सुनी थी, चिड़ियों को मारे
जाते देखा था और न देखा होता तो भी बन्दूक से उसे स्वाभाविक भय होता। पशु बुद्धि
अपने शत्रुओं से स्वत: सशंक हो जाती है। मन्नू के पांव मानों सुन्न हो गए। वह उछलकर किसी दूसरे वृक्ष पर भी न जा सका। उसी
डाल पर दुबकर बैठ गया। साहब को उसकी यह कला पसन्द आई, दया आ गई। माली को
भेजा, जाकर बन्दर को पकड़
ला। माली दिल में तो डरा, पर साहब के गुस्से को जानता था, चुपके से वृक्ष पर
चढ़ गया और हजरत बंदर को एक रस्सी में बांध लाया। मन्नू साहब को बरामदे में एक खम्भे
से बांध दिया गया। उसकी स्वच्छन्दता का अन्त हो गया संध्या तक वहीं पड़ा हुआ करुण
स्वर में कूं-कूं करता रहा। सांझ हो गई तो एक नौकर उसके सामने एक मुट्ठी चने डाल
गया। अब मन्नू को अपनी स्थिति के परिवर्तन का ज्ञान हुअ। न कम्बल, न टाट, जमीन पर पड़ा बिसूर
रहा था, चने उसने छुए भी
नहीं। पछता रहा था कि कहां से फल खाने निकला। मदारी का प्रेम याद आया। बेचारा मुझे
खोजता फिरता होगा। मदारिन प्याले में रोटी और दूध लिए मुझे मन्नू-मन्नू पुकार रही
होगी। हा विपत्ति! तूने मुझे कहां लाकर छोड़ा। रात-भर वह जागता और बार-बार खम्भे
के चक्कर लगाता रहा। साहब का कुत्ता टामी बार-बार डराता और भूंकता था। मन्नू को उस
पर ऐसा क्रोध आता था कि पाऊं तो मारे चपतों के चौंधिया दूं, पर कुत्ता निकट न
आता, दूर ही से गरजकर रह
जाता था।
रात
गुजारी, तो साहब ने आकर
मन्नू को दो-तीन ठोकरे जमायीं। सुअर! रात-भर
चिल्ला-चिल्लाकर नींद हराम कर दी। आंख तक न लगी! बचा, आज भी तुमने गुल
मचाया, तो गोली मार दूंगा।
यह कहकर वह तो चले गए, अब नटखट लड़कों की बारी आई। कुछ घर के और कुछ बाहर के लड़के
जमा हो गए। कोई मन्नू को मुंह चिढ़ाता, कोई उस पर पत्थर फेंकता और कोई उसको
मिठाई दिखाकर ललचाता था। कोई उसका रक्षक न था, किसी को उस पर दया न आती थी। आत्मरक्षा
की जितनी क्रियाएं उसे मालूम थीं, सब करके हार गया। प्रणाम किया, पूजा-पाठ किया लेकिन
इसक उपहार यही मिला कि लड़कों ने उसे और भी दिक करना शुरु किया। आज किसी ने उसके
सामने चने भी न डाले और यदि डाले भी तो वह खा न सकता। शोक ने भोजन की इच्छा न
रक्खी थी।
संध्या
समय मदारी पता लगाता हुआ साहब के घर पहुंचा। मन्नू उस देखते ही ऐसा अधीर हुआ, मानो जंजीर तोड़
डालेगा, खंभे को गिरा देगा।
मदारी ने जाकर मन्नू को गले से लगा लिया और साहब से बोला—‘हुजूर, भूल-चूक तो आदमी से
भी हो जाती है, यह तो पशु है!
मुझे चाहे जो सजा दीजिए पर इसे छोड़ दीजिए। सरकार, यही मेरी रोटियों का
सहारा है। इसके बिना हम दो प्राणी भूखों मर जाएंगे। इसे हमने लड़के की तरह पाला
हैं, जब से यह भागा है, मदारिन ने दाना-पानी
छोड़ दिया है। इतनी दया किजिए सरकार, आपका इकबाल सदा रोशन रहे, इससे भी बड़ा ओहदा
मिले, कलम चाक हो, मुद्दई बेबाक हो। आप
हैं सपूत, सदा रहें मजूबत।
आपके बैरी को दाबे भूत।’ मगर साहब ने दया का पाठ न पढ़ा था।
घुड़ककर बोले-चुप रह पाजी, टें-टें करके दिमाग चाट गया। बचा बन्दर छोड़कर बाग का
सत्यानाश कर डाला, अब खुशामद करने चले
हो। जाकर देखो तो, इसने कितने फल खराब
कर दिये। अगर इसे ले जाना चाहता है तो दस रुपया लाकर मेरी नजर कर नहीं तो चुपके से
अपनी राह पकड़। यह तो यहीं बंधे-बंधे मर जाएगा, या कोई इतने दाम देकर ले जाएगा।
मदारी निराश होकर चला
गया। दस रुपये कहां से लाता? बुधिया से जाकर हाल कहा। बुधिया को अपनी तरस पैदा करने की
शक्ति पर ज्यादा भरोसा था। बोली—‘बस, ली तुम्हारी करतूत!
जाकर लाठी-सी मारी होगी। हाकिमों से बड़े दांव-पेंच की बातें की जाती हैं, तब कहीं जाकर वे
पसीजते है। चलो मेरे साथ, देखों छुड़ा लती हूं कि नहीं।’ यह कहकर उसने मन्नू
का सब सामान एक गठरी में बांधा और मदारी के साथ साहब के पास आई, मन्नू अब की इतने
जोर से उछला कि खंभा हिल उठा, बुधिया ने कहा—‘सरकार, हम आपके द्वार पर
भीख मांगने आये हैं, यह बन्दर हमको दान दे दीजिए।’
साहब—हम
दान देना पाप समझते है।
मदारिन—हम
देस-देस घूमते हैं। आपका जस गावेंगे।
साहब—हमें
जस की चाह या परवाह नहीं है।
मदारिन—भगवान्
आपको इसका फल देंगे।
साहब—मैं
नहीं जानता भगवान् कौन बला है।
मदारिन—महाराज, क्षमा की बड़ी महिमा
है।
साहब—हमारे
यहां सबसे बड़ी महिमा दण्ड की है।
मदारिन—हुजूर, आप हाकिम हैं।
हाकिमों का काम है, न्याय कराना। फलों के पीछे दो आदमियों की जान न लीजिए। न्याय
ही से हाकिम की बड़ाई होती है।
साहब—हमारी
बड़ाई क्षमा और न्याय से नहीं है और न न्याय करना हमारा काम है, हमारा काम है मौज
करना।
बुधिया
की एक भी युक्ति इस अहंकार-मूर्ति के सामने न चली। अन्त को निराश होकर वह बोली—हुजूर
इतना हुक्म तो दे दें कि ये चीजें बंदर के पास रखा दूं। इन पर यह जान देता है।
साहब-मेरे
यहां कूड़ा-कड़कट रखने की जगह नहीं है। आखिर बुधिया हताश होकर चली गई।
३
टा
|
मी ने देखा, मन्नू कुछ बोलता
नहीं तो, शेर हो गया, भूंकता-भूंकता मन्नू
के पास चला आया। मन्नू ने लपककर उसके दोनों कान पकड़ लिए और इतने तमाचे लगाये कि
उसे छठी का दूध याद आ गया। उसकी चिल्लाहट सुनकर साहब कमरे से बाहर निकल आए और
मन्नू के कई ठोकरें लगाई। नौकरों को आज्ञा दी कि इस बदमाश को तीन दिन तक कुछ खाने
को मत दो।
संयोग
से उसी दिन एक सर्कस कंपनी का मैनेजर साहब से तमाशा करने की आज्ञा लेने आया। उसने
मन्नू को बंधे, रोनी सूरत बनाये
बैठे देखा, तो पास आकर उसे
पुचकारा। मन्नू उछलकर उसकी टांगों से लिपट गया, और उसे सलाम करने लगा। मैनेजर समझ गया
कि यह पालतू जानवर है। उसे अपने तमाशे के लिए बन्दर की जरुरत थी। साहब से बातचीत
की, उसका उचित मूल्य
दिया, और अपने साथ ले गया।
किन्तु मन्नू को शीघ्र ही विदित हो गया कि यहां मैं और भी बुरा फंसा। मैनेजर ने
उसे बन्दरों के रखवाले को सौंप दिया। रखवाला निष्ठुर और क्रूर प्रकृति का प्राणी
था। उसके अधीन और भी कई बन्दर थे। सभी उसके हाथों कष्ट भोग रहे थे। वह उनके भोजन
की सामग्री खुद खा जाता था। अन्य बंदरों ने मन्नू का सहर्ष स्वागत नहीं किया। उसके
आने से उनमें बड़ा कोलाहाल मचा। अगर रखवाले ने उसे अलग न कर दिया होता तो वे सब
उसे नोचकर खा जाते। मन्नू को अब नई विद्या सीखनी पड़ी। पैरगाड़ी पर चढ़ना, दौड़ते घोड़े की पीठ
पर दो टांगो से खड़े हो जाना, पतली रस्सी पर चलना इत्यादि बड़ी ही कष्टप्रद साधनाएं थी।
मन्नू को ये सब कौशल सीखने में बहुत मार खानी पड़ती। जरा भी चूकता तो पीठ पर डंडा
पड़ जाता। उससे अधिक कष्ट की बात यह थी कि उसे दिन-भर एक कठघरे में बंद रक्खा जाता
था, जिसमें कोई उसे देख
न ले। मदारी के यहां तमाशा ही दिखाना पड़ता था किन्तु उस तमाशे और इस तमाशे में
बड़ा अन्तर था। कहां वे मदारी की मीठी-मीठी बातें, उसका दुलारा और
प्यार और कहां यह कारावास और डंडो की मार! ये काम सीखने में
उसे इसलिए और भी देर लगती थी कि वह अभी तक जीवनदास के पास भाग जाने के विचार को
भूला न था। नित्य इसकी ताक में रहता कि मौका पाऊं और निकल जाऊं, लेकिन वहां जानवरों
पर बड़ी कड़ी निगाह रक्खी जाती थी। बाहर की हवा तक न मिलती थी, भागने की तो बात
क्या! काम लेने वाले सब थे मगर भोजन की खबर लेने वाला कोई भी न था।
साहब की कैद से तो मन्नू जल्द ही छूट गया था, लेकिन इस कैद में तीन महीने बीत गये।
शरीर घुल गया, नित्य चिन्ता घेरे
रहती थी, पर भागने का कोई
ठीक-ठिकाने न था। जी चाहे या न चाहे, उसे काम अवश्य करना पड़ता था। स्वामी
को पैसों से काम था, वह जिये चाहे मरे।
संयोगवश
एक दिन सर्कस के पंडाल में आग लग गई, सर्कस के नौकर—चाकर
सब जुआरी थे। दिन-भर जुआ खेलते, शराब पीते और लड़ाई-झगड़ा करते थे। इन्हीं झंझटों में एकएक
गैस की नली फट गई। हाहाकार मच गया। दर्शक वृन्द जान लेकर भागे। कंपनी के कर्माचारी
अपनी चीजें निकालने लगे। पशुओं की किसी का खबर न रही। सर्कस में बड़े-बड़े भयंकर
जीव-जन्तु तमायशा करते थे। दो शेर, कई चीते, एक हाथी,एक रीछ था। कुत्तों
घोड़ों तथा बन्दरों की संख्या तो इससे कहीं अधिक थी। कंपनी धन कमाने के लिए अपने
नौकरों की जान को कोई चीज नहीं समझती थी। ये सब के सब जीव इस समय तमाशे के लिए
खोले गये थे। आग लगते ही वे चिल्ला-चिल्लाकर भागे। मन्नू भी भागा खड़ा हुआ। पीछे
फिरकर भी न देखा कि पंडाल जला या बचा।
मन्नू
कूदता-फांदता सीधे घर पहुंचा जहां, जीवनदास रहता था, लेकिन द्वारा बन्द
था। खरपैल पर चढ़कर वह घर में घुस गया, मगर किसी आदमी का चिन्ह नहीं मिला। वह
स्थान, जहां वह सोता था, और जिसे बुधिया गोबर
से लीपकर साफ रक्खा करती थी, अब घास-पात से ढका हुआ था, वह लकड़ी जिस पर चढ़कर कूदा करता था, दीमकों ने खा ली थी।
मुहल्लेवाले उसे देखते ही पहचान गए। शोर मच गया—मन्नू आया, मन्नू आया।
मन्नू
उस दिन से राज संध्या के समय उसी घर में आ जाता, और अपने पुराने
स्थान पर लेट रहता। वह दिन-भर मुहल्ले में घूमा करता था, कोई कुछ दे देता, तो खा लेता था, मगर किसी की कोई चीज
नहीं छूता था। उसे अब भी आशा थी कि मेरा स्वामी यहां मुझसे अवश्य मिलेगा। रातों को
उसके कराहने की करूण ध्वनि सुनाई देती थी। उसकी दीनता पर देखनेवालों की आंखों से
आंसू निकल पड़े थे।
इस
प्रकार कई महीने बीत गये। एक दिन मन्नू गली में बैठा हुआ था, इतने में लड़कों का
शोर सुनाई दिया। उसने देखा, एक बुढ़िया नंगे बदन, एक चीथड़ा कमर में लपेटे सिर के बाल
छिटकाए, भूतनियों की तरह चली
आ रही है, और कई लड़के उसक
पीछे पत्थर फेंकते पगली नानी! पगली नानी!
की हांक लगाते, तालियां बजाते चले
जा रहे हैं। वह रह-रहकर रुक जाती है और लड़को से कहती है—‘मैं
पगली नानी नहीं हूं, मूझे पगली क्यों कहते हो? आखिर बुढ़िया जमीन पर बैठ गई, और बोली—‘बताओ, मुझे पगली क्यों
कहते हो?’
उसे लड़को पर लेशमात्र भी क्रोध न आता था। वह न रोती थी, न हंसती। पत्थर लग
भी जाता चुप हो जाती थी।
एक
लड़के ने कहा-तू कपड़े क्यों नहीं पहनती? तू पागल नहीं तो और
क्या है?
बुढ़िया—कपड़े
मे जाड़े में सर्दी से बचने के लिए पहने जाते है। आजकल तो गर्मी है।
लड़का—तुझे
शर्म नहीं आती?
बुढ़िया—शर्म
किसे कहते हैं बेटा, इतने साधू-सन्यासी-नंगे रहते हैं, उनको पत्थर से क्यों
नहीं मारते?
लड़का—वे
तो मर्द हैं।
बुढ़िया—क्या
शर्म औरतों ही के लिए है, मर्दों को शर्म नहीं आनी चाहिए?
लड़का—तुझे
जो कोई जो कुछ दे देता है, उसे तू खा लेती है। तू पागल नहीं तो और क्या है?
बुढ़िया—इसमें
पागलपन की क्या बात है बेटा? भूख लगती है, पेट भर लेती हूं।
लड़का—तुझे
कुछ विचार नहीं है? किसी के हाथ की चीज खाते घिन नहीं आती?
बुढ़िया—घिन
किसे कहते है बेटा, मैं भूल गई।
लड़का—सभी
को घिन आती है, क्या बता दूं, घिन किसे कहते है।
दूसरा लड़का—तू
पैसे क्यों हाथ से फेंक देती है? कोई कपड़े देता है तो क्यों छोड़कर चल देती है? पगली नहीं तो क्या
है?
बुढ़िया—पैसे, कपड़े लेकर क्या
करुं बेटा?
लड़का—और
लोग क्या करते हैं? पैसे-रुपये का लालच सभी को होता है।
बुढ़िया—लालच
किसे कहते हैं बेटा, मैं भूल गई।
लड़का—इसी
से तुझे पगली नानी कहते है। तुझे न लोभ है, घिन है, न विचार है, न लाज है। ऐसों ही
को पागल कहते हैं।
बुढ़िया—तो
यही कहो, मैं पगली हूं।
लड़का—तुझे
क्रोध क्यों नहीं आता?
बुढ़िया—क्या
जाने बेटा। मुझे तो क्रोध नहीं आता। क्या किसी को क्रोध भी आता है? मैं तो भूल गई।
कई
लड़कों ने इस पर ‘पगली, पगली’ का शोर मचाया और बुढ़िया उसी तरह शांत
भाव से आगे चली। जब वह निकट आई तो मन्नू उसे पहचान गया। यह तो मेरी बुधिया है। वह
दौड़कर उसके पैरों से लिपट गया। बुढ़िया ने चौंककर मन्नू को देखा, पहचान गई। उसने उसे
छाती से लगा।
४
म
|
न्नू को गोद में लेते ही बुधिया का
अनुभव हुआ कि मैं नग्न हूं। मारे शर्म के वह खड़ी न रह सकी। बैठकर एक लड़के से
बोली—बेटा, मुझे कुछ पहनने को दोगे?
लड़का—तुझे
तो लाज ही नहीं आती न?
बुढ़िया—नहीं
बेटा, अब तो आ रही है।
मुझे न जान क्या हो गया था।
लड़को ने फिर ‘पगली, पगली’
का शोर मचाया। तो उसने पत्थर फेंककर लड़को को मारना शुरु किया। उनके पीछे दौड़ी।
एक
लड़के ने पूछा—अभी तो तुझे क्रोध नहीं आता था। अब क्यों आ रहा है?
बुढ़िया—क्या
जाने क्यों, अब क्रोध आ रहा है।
फिर किसी ने पगली काहा तो बन्दर से कटवा दूंगी।
एक लड़का दौड़कर एक
फटा हुआ कपड़ा ले आया। बुधिया ने वह कपड़ा पहन लिया। बाल समेट लिये। उसके मुख पर
जो एक अमानुष आभा थी, उसकी जगह चिन्ता का पीलापन दिखाई देने लगा। वह रो-रोकर मन्नू
से कहने लगी—बेटा, तुम कहां चले गए थे। इतने दिन हो गए हमारी सुध न ली। तुम्हारी
मदारी तुम्हारे ही वियोग में परलोक सिधारा, मैं भिक्षा मांगकर अपना पेट पालने लगी, घर-द्वारर तहस-नहस
हो गया। तुम थे तो खाने की, पहनने की, गहने की, घर की इच्छा थी, तुम्हारे जाते सब इच्छाएं लुप्त हो गई।
अकेली भूख तो सताती थी, पर संसार में और किसी की चिन्ता न थी। तुम्हारा मदारी मरा, पर आंखें में आंसू न
आए। वह खाट पर पड़ा कराहता था और मेरा कलेजा ऐसा पत्थर का हो गया था कि उसकी
दवा-दारु की कौन कहे, उसके पास खड़ी तक न होती थी। सोचती थी—यह
मेरा कौन है। अब आज वे सब बातें और अपनी वह दशा याद आती है, तो यही कहना पड़ता
है कि मैं सचमुच पगली हो गई थी, और लड़कों का मुझे पगली नानी कहकर चिढ़ाना ठीक ही था।
यह
कहकर बुधिया मन्नू को लिये हुए शहर के बाहर एक बाग में गई, जहां वह एक पेड़ के
नीचे रहती थी। वहां थोड़ी-सी पुआल हुई थी। इसके सिवा मनुष्य के बसेरे का और कोई
चिन्ह न था।
आज
से मन्नू बुधिया के पास रहने लगा। वह सबरे घर से निकल जाता और नकले करके, भीख मांगकर बुधिया
के खने-भर को नाज या रोटियां ले आता था। पुत्र भी अगर होता तो वह इतने प्रेम से
माता की सेवा न करता। उसकी नकलों से खुश होकर लोग उसे पैसे भी देते थे। उस पैसों
से बुधिया खाने की चीजें बाजार से लाती थी।
लोग
बुधिया के प्रति बंदर का वह प्रेम देखकर चकित हो जाते और कहते थे कि यह बंदर नहीं, कोई देवता है।
‘माधुरी,’
फरवरी, १९२४
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें