मंगलवार, 26 अप्रैल 2011

स्वर्ग की देवी




भाग्य की बात ! शादी विवाह में आदमी का क्या अख्तियार । जिससे ईश्वर ने, या उनके नायबों ब्रह्मणने तय कर दी, उससे हो गयी। बाबू भारतदास ने लीला के लिए सुयोग्य वर खोजने में कोई बात उठा नही रखी। लेकिन जैसा घर-घर चाहते थे, वैसा न पा सके। वह लडकी को सुखी देखना चाहते थे, जैसा हर एक पिता का धर्म है ; किंतु इसके लिए उनकी समझ में सम्पत्ति ही सबसे जरूरी चीज थी। चरित्र या शिक्षा का स्थान गौण था। चरित्र तो किसी के माथे पर लिखा नही रहता और शिक्षा का आजकल के जमाने में मूल्य ही क्या ? हां, सम्पत्ति के साथ शिक्षा भी हो तो क्या पूछना ! ऐसा घर बहुत ढढा पर न मिला तो अपनी विरादरी के न थे। बिरादरी भी मिली, तो जायजा न मिला!; जायजा भी मिला तो शर्ते तय न हो सकी। इस तरह मजबूर होकर भारतदास को लीला का विवाह लाला सन्तसरन के लडके सीतासरन से करना पडा। अपने बाप का इकलौता बेटा था, थोडी बहुत शिक्षा भी पायी थी, बातचीत सलीके से करता था, मामले-मुकदमें समझता था और जरा दिल का रंगीला भी था । सबसे बडी बात यह थी कि रूपवान, बलिष्ठ, प्रसन्न मुख, साहसी आदमी था ; मगर विचार वही बाबा आदम के जमाने के थे। पुरानी जितनी बाते है, सब अच्छी ; नयी जितनी बातें है, सब खराब है। जायदाद के विषय में जमींदार साहब नये-नये दफों का व्यवहार करते थे, वहां अपना कोई अख्तियार न था ; लेकिन सामाजिक प्रथाओं के कटटर पक्षपाती थे। सीतासरन अपने बाप को जो करते या कहते वही खुद भी कहता था। उसमें खुद सोचने की शक्ति ही न थी। बुद्वि की मंदता बहुधा सामाजिक अनुदारता के रूप में प्रकट होती है।
ली
ला  ने जिस दिन घर में वॉँव रखा उसी दिन उसकी परीक्षा शुरू हुई। वे सभी काम, जिनकी उसके घर में तारीफ होती थी यहां वर्जित थे। उसे  बचपन से ताजी हवा पर जान देना सिखाया गया था, यहां उसके सामने मुंह खोलना भी पाप था। बचपन से सिखाया गया था रोशनी ही जीवन है, यहां रोशनी के दर्शन दुर्भभ थे। घर पर अहिंसा, क्षमा और दया ईश्वरीय गुण बताये गये थे, यहां इनका नाम लेने की भी स्वाधीनता थी। संतसरन बडे तीखे, गुस्सेवर आदमी थे, नाक पर मक्खी न बैठने देते। धूर्तता और छल-कपट से ही उन्होने जायदाद पैदा की थी। और उसी को सफल जीवन का मंत्र समझते थे। उनकी पत्नी उनसे भी दो अंगुल ऊंची थीं। मजाल क्या है कि बहू अपनी अंधेरी कोठरी के द्वार पर खडी हो जाय, या कभी छत पर टहल सकें । प्रलय आ जाता, आसमान सिर पर उठा लेती। उन्हें बकने का मर्ज था। दाल में नमक का जरा तेज हो जाना उन्हें दिन भर बकने के लिए काफी बहाना था । मोटी-ताजी महिला थी, छींट का घाघरेदार लंहगा पहने, पानदान बगल में रखे, गहनो से लदी हुई, सारे दिन बरोठे में माची पर बैठीे रहती थी। क्या मजाल कि घर में उनकी इच्छा के विरूद्व एक पत्ता भी हिल जाय ! बहू की नयी-नयी आदतें देख देख जला करती थी। अब काहे की आबरू होगी। मुंडेर पर खडी हो कर झांकती है। मेरी लडकी ऐसी दीदा-दिलेर होती तो गला घोंट देती। न जाने इसके देश में कौन लोग बसते है ! गहनें नही पहनती। जब देखो नंगी बुच्ची बनी बैठी रहती है। यह भी कोई अच्छे लच्छन है। लीला के पीछे सीतासरन पर भी फटकार पडती। तुझे भी चॉँदनी में सोना अच्छा लगता है, क्यों ? तू भी अपने को मर्द कहता कहेगा ? यह मर्द कैसा कि औरत उसके कहने में न रहे। दिन-भर घर में घुसा रहता है। मुंह में जबान नही है ? समझता क्यों नही ?
     सीतासरन कहता---अम्मां, जब कोई मेरे समझाने से माने तब तो?
मां---मानेगी क्यो नही, तू मर्द है कि नही ? मर्द वह चाहिए कि कडी निगाह से देखे तो औरत कांप उठे।
सीतासरन -----तुम तो समझाती ही रहती हो
मां ---मेरी उसे क्या परवाह ? समझती होगी, बुढिया चार दिन में मर जायगी तब मैं मालकिन हो ही जाउँगी
सीतासरन --- तो मैं भी तो उसकी बातों का जबाब नही दे पाता। देखती नही हो कितनी दुर्बल हो गयी है। वह रंग ही नही रहा। उस कोठरी में पडे-पडे उसकी  दशा बिगडती जाती है।
     बेटे के मुंह से ऐसी बातें सुन माता आग हो जाती और सारे दिन जलती ; कभी भाग्य को कोसती, कभी समय को ।
     सीतासरन माता के सामने तो ऐसी बातें करता ; लेकिन लीला के सामने जाते ही उसकी मति बदल जाती थी। वह वही बातें करता था जो लीला को अच्छी लगती। यहां  तक कि दोनों वृद्वा की हंसी उडातें। लीला को इस में ओर कोई सुख न था । वह सारे दिन कुढती रहती। कभी चूल्हे के सामने न बैठी थी ; पर यहां पसेरियों आटा थेपना पडता, मजूरों और टहलुओं के लिए रोटी पकानी पडती। कभी-कभी वह चूल्हे के सामने बैठी घंटो रोती। यह बात न थी कि यह लोग कोई महाराज-रसोइया न रख सकते हो; पर घर की पुरानी प्रथा यही थी कि बहू खाना पकाये और उस प्रथा का निभाना जरूरी था।  सीतासरन को देखकर लीला का संतप्त ह्रदय एक क्षण के लिए शान्त हो जाता था।
     गर्मी के दिन थे और सन्ध्या का समय था। बाहर हवा चलती, भीतर देह फुकती थी। लीला कोठरी में बैठी एक किताब देख रही थी कि सीतासरन ने आकर कहा--- यहां तो बडी गर्मी है, बाहर बैठो।
     लीलायह गर्मी तो उन तानो से अच्छी है जो अभी सुनने पडेगे।
     सीतासरनआज अगर बोली तो मैं भी बिगड जाऊंगा।
     लीलातब तो मेरा घर में रहना भी मुश्किल हो जायेगा।
     सीतासरनबला से अलग ही रहेंगे !
     लीलामैं मर भी लाऊं तो भी अलग रहूं । वह जो कुछ  कहती सुनती है, अपनी समझ से मेरे भले  ही के लिए कहती-सुनती है। उन्हें मुझसे कोई दुश्मनी थोडे ही है। हां, हमें उनकी बातें अच्छी न लगें, यह दूसरी बात है।उन्होंने खुद वह सब कष्ट झेले है, जो वह मुझे झेलवाना चाहती है। उनके स्वास्थ्य पर उन कष्टो का जरा भी असर नही पडा। वह इस ६५ वर्ष की उम्र में मुझसे कहीं टांठी है। फिर उन्हें कैसे मालूम  हो कि इन कष्टों से स्वास्थ्य बिगड सकता है।
     सीतासरन ने उसके मुरझाये हुए मुख की ओर करुणा नेत्रों से देख कर कहातुम्हें इस घर में आकर बहुत दु:ख सहना पडा। यह घर तुम्हारे योग्य न था। तुमने पूर्व जन्म में जरूर कोई पाप किया होगा।
     लीला ने पति के हाथो से खेलते हुए कहायहां न आती तो तुम्हारा प्रेम कैसे पाती ?
पां
च साल गुजर गये। लीला दो बच्चों की मां हो गयी। एक लडका था, दूसरी लडकी । लडके का नाम जानकीसरन रखा गया और लडकी का  नाम कामिनी। दोनो बच्चे घर को गुलजार किये रहते थे। लडकी लडकी दादा से हिली थी, लडका दादी से । दोनों शोख और शरीर थें। गाली दे बैठना, मुंह चिढा देना तो उनके लिए मामूली बात थी। दिन-भर खाते और आये दिन बीमार पडे रहते। लीला ने खुद सभी कष्ट सह लिये थे पर बच्चों में बुरी आदतों का  पडना उसे बहुत बुरा मालूम होता था; किन्तु उसकी कौन सुनता था। बच्चों की माता होकर उसकी अब गणना ही न रही थी। जो कुछ थे बच्चे थे, वह कुछ न थी। उसे किसी  बच्चे को डाटने का भी अधिकार न था, सांस फाड खाती थी।
     सबसे बडी आपत्ति यह थी कि उसका स्वास्थ्य अब और भी खराब हो गया था। प्रसब काल में उसे वे भी अत्याचार सहने पडे जो अज्ञान, मूर्खता और अंध विश्वास ने सौर की रक्षा के लिए गढ रखे है। उस काल-कोठरी में, जहॉँ न हवा का गुजर था, न प्रकाश का, न सफाई का, चारों और दुर्गन्ध, और सील और गन्दगी भरी हुई थी, उसका कोमल शरीर सूख गया। एक बार जो कसर रह गयी वह दूसरी बार पूरी हो गयी। चेहरा पीला पड गया, आंखे घंस गयीं। ऐसा मालूम होता, बदन में खून ही नही रहा। सूरत ही बदल गयी।
     गर्मियों के दिन थे। एक तरफ आम पके, दूसरी तरफ खरबूजे । इन दोनो फलो की ऐसी अच्छी फसल कभी न हुई थी अबकी इनमें इतनी मिठास न जाने कहा से आयी थी कि कितना ही खाओ मन न भरे। संतसरन के इलाके से आम औरी खरबूजे के टोकरे भरे चले आते थे। सारा घर खूब उछल-उछल खाता था। बाबू साहब पुरानी हड्डी के आदमी थे। सबेरे एक सैकडे आमों का नाश्ता करते, फिर पसेरी-भर खरबूज चट कर जाते। मालकिन उनसे पीछे रहने वाली न थी। उन्होने तो एक वक्त का भोजन ही बन्द कर दिया। अनाज सडने वाली चीज नही। आज नही कल खर्च हो जायेगा। आम और खरबूजे तो एक दिन भी नही ठहर सकते। शुदनी थी और क्या। यों ही हर साल दोनों चीजों की रेल-पेल होती थी; पर किसी को कभी कोई शिकायत न होती थी। कभी पेट में गिरानी मालूम हुई तो हड की फंकी मार ली। एक दिन बाबू संतसरन के पेट में मीठा-मीठा दर्द होने लगा। आपने उसकी परवाह न की । आम खाने बैठ गये। सैकड़ा पूरा करके उठे ही थे कि कै हुई । गिर पडे फिर तो तिल-तिल करके पर कै और दस्त होने लगे। हैजा हो गया। शहर के डाक्टर बुलाये गये, लेकिन आने के पहले ही बाबू साहब चल बसे थे। रोना-पीटना मच गया। संध्या होते-होते लाश घर से निकली। लोग दाह-क्रिया करके आधी रात को लौटे तो मालकिन को भी कै दस्त हो रहे थे। फिर दौड धूप शुरू हुई; लेकिन सूर्य निकलते-निकलते वह भी सिधार गयी। स्त्री-पुरूष जीवनपर्यंत एक दिन के लिए भी अलग न हुए थे। संसार से भी साथ ही साथ गये, सूर्यास्त के समय पति ने प्रस्थान किया, सूर्योदय के समय पत्नी ने ।
     लेकिन मुशीबत का अभी अंत न हुआ था। लीला तो संस्कार की तैयारियों मे लगी थी; मकान की सफाई की तरफ किसी ने ध्यान न दिया। तीसरे दिन दोनो बच्चे दादा-दादी के लिए रोत-रोते बैठक में जा पंहुचे। वहां एक आले का खरबूजज कटा हुआ पडा था; दो-तीन कलमी आम भी रखे थे। इन पर मक्खियां भिनक रही थीं। जानकी ने एक तिपाई पर चढ कर दोनों चीजें उतार लीं और दोंनों ने मिलकर खाई। शाम होत-होते दोनों को हैजा हो गया और दोंनो मां-बाप को रोता छोड चल बसे। घर में अंधेरा हो गया। तीन दिन पहले जहां चारों तरफ चहल-पहल थी, वहां अब सन्नाटा छाया हुआ था, किसी के रोने की आवाज भी सुनायी न देती थी। रोता ही कौन ? ले-दे के कुल दो प्राणी रह गये थे। और उन्हें रोने की सुधि न थी।
ली
ला का स्वास्थ्य पहले भी कुछ अच्छा न था, अब तो वह और भी बेजान हो गयी। उठने-बैठने की शक्ति भी न रही। हरदम खोयी सी रहती, न कपडे-लत्ते की सुधि थी, न खाने-पीने की । उसे न घर से वास्ता था, न बाहर से । जहां बैठती, वही बैठी रह जाती। महीनों कपडे न बदलती, सिर में तेल न डालती बच्चे ही उसके प्राणो के आधार थे। जब वही न रहे तो मरना और जीना बराबर था। रात-दिन यही मनाया करती कि भगवान् यहां से ले चलो । सुख-दु:ख सब भुगत चुकी। अब सुख की लालसा नही है; लेकिन बुलाने से मौत किसी को आयी है ?
सीतासरन भी पहले तो बहुत रोया-धोया; यहां तक कि घर छोडकर भागा जाता था; लेकिन ज्यों-ज्यो दिन गुजरते थे बच्चों का शोक उसके दिल से मिटता था; संतान का दु:ख तो कुछ माता ही को होता है। धीरे-धीरे उसका जी संभल गया। पहले की भॉँति मित्रों के साथ हंसी-दिल्लगी होने लगी। यारों ने और भी चंग पर चढाया । अब घर का मालिक था, जो चाहे कर सकता था, कोई उसका हाथ रोकने वाला नही था। सैर-सपाटे करने लगा। तो लीला को रोते देख उसकी आंखे सजग हो जाती थीं, कहां अब उसे उदास और शोक-मग्न देखकर झुंझला उठता। जिंदगी रोने ही के लिए तो नही है। ईश्वर ने लडके दिये थे, ईश्वर ने ही छीन लिये। क्या लडको के पीछे प्राण दे देना होगा ? लीला यह बातें सुनकर भौंचक रह जाती। पिता के मुंह से ऐसे शब्द निकल सकते है। संसार में ऐसे प्राणी भी है।
     होली के दिन थे। मर्दाना में गाना-बजाना हो रहा था। मित्रों की दावत का भी सामान किया गया था । अंदर लीला जमींन पर पडी हुई रो रही थी त्याहोर के दिन उसे रोते ही कटते थें आज बच्चे बच्चे होते तो अच्छे- अच्छे कपडे पहने कैसे उछलते फिरते! वही न रहे तो कहां की तीज और कहां के त्योहार।
     सहसा सीतासरन ने आकर कहा क्या दिन भर रोती ही रहोगी ? जरा कपडे तो बदल डालो , आदमी बन जाओ । यह क्या तुमने अपनी गत बना रखी है ?
     लीलातुम जाओ अपनी महफिल मे बैठो, तुम्हे मेरी क्या फिक्र पडी है।
सीतासरनक्या दुनिया में और किसी के लडके नही मरते ? तुम्हारे ही सिर पर मुसीबत आयी है ?
लीलायह बात कौन नही जानता। अपना-अपना दिल ही तो है। उस पर किसी का बस है ?
सीतासरन मेरे साथ भी तो तुम्हारा कुछ कर्तव्य है ?
लीला ने कुतूहल से पति को देखा, मानो उसका आशय नही समझी। फिर मुंह फेर कर रोने लगी।
सीतासरन मै अब इस मनहूसत का अन्त कर देना चाहता हूं। अगर तुम्हारा अपने दिल पर काबू नही है तो मेरा भी अपने दिल पर काबू नही है। मैं अब जिंदगी भर मातम नही मना सकता।
लीलातुम रंग-राग मनाते हो, मैं तुम्हें मना तो नही करती ! मैं रोती हूं तो क्यूं नही रोने देते।
सीतासरनमेरा घर रोने के लिए नही है ?
लीलाअच्छी बात है, तुम्हारे घर में न रोउंगी।
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ली
ला ने देखा, मेरे स्वामी मेरे हाथ से निकले जा रहे है। उन पर विषय का भूत सवार हो गया है और कोई समझाने वाला नहीं। वह अपने होश मे नही है। मैं क्या करुं, अगर मैं चली जाती हूं तो थोडे ही दिनो में सारा ही घर मिट्टी में मिल जाएगा और इनका वही हाल  होगा जो स्वार्थी मित्रो के चुंगल में फंसे हुए नौजवान रईसों का होता है। कोई कुलटा घर में आ जाएगी और इनका सर्वनाश कर देगी। ईश्वा ! मैं क्या करूं ? अगर इन्हें कोई बीमारी हो जाती तो क्या मैं उस दशा मे इन्हें छोडकर चली जाती ? कभी नही। मैं तन मन से इनकी सेवा-सुश्रूषा करती, ईश्वर से प्रार्थना करती, देवताओं की मनौतियां करती। माना इन्हें शारीरिक रोग नही है, लेकिन मानसिक रोग अवश्य है। आदमी रोने की जगह हंसे और हंसने की जगह रोये, उसके दीवाने होने में क्या संदेह है ! मेरे चले जाने से इनका सर्वनाश हो जायेगा।  इन्हें बचाना मेरा धर्म है।
     हां, मुझें अपना शोक भूल जाना होगा। रोऊंगी, रोना तो तकदीर में लिखा ही हैरोऊंगी, लेकिन हंस-हंस कर । अपने भाग्य से लडूंगी। जो जाते रहे उनके नाम के सिवा और कर ही क्या सकती हूं, लेकिन जो है उसे न जाने दूंगी। आ, ऐ टूटे हुए ह्रदय ! आज तेरे टुकडों को जमा करके एक समाधि बनाऊं और अपने शोक को उसके हवाले कर दूं। ओ रोने वाली आंखों, आओ, मेरे आसुंओं को अपनी विहंसित छटा में छिपा लो। आओ, मेरे आभूषणों, मैंने बहुत दिनों तक तुम्हारा अपमान किया है, मेरा अपराध क्षमा  करो। तुम मेरे भले दिनो के साक्षी हो, तुमने मेरे साथ बहुत विहार किए है, अब इस संकट में मेरा साथ दो ; मगर देखो दगा न करना ; मेरे भेदों को छिपाए रखना।
     पिछले पहर को पहफिल में सन्नाटा हो गया। हू-हा की आवाजें बंद हो गयी। लीला ने सोचा क्या लोग कही चले गये, या सो गये ? एकाएक सन्नाटा क्यों छा गया। जाकर दहलीज में खडी हो गयी और बैठक में झांककर देखा, सारी देह में एक ज्वाला-सी दौड गयी। मित्र लोग विदा हो गये थे। समाजियो का पता न था। केवल एक रमणी मसनद पर लेटी हुई थी और सीतासरन सामने झुका हुआ उससे बहुत धीरे-धीरे बातें कर रहा था। दोनों के चेहरों और आंखो से उनके मन के भाव साफ झलक रहे थे। एक की आंखों में अनुराग था, दूसरी की आंखो में कटाक्ष ! एक भोला-भोला ह्रदय एक मायाविनी रमणी के हाथों लुटा जाता था। लीला की सम्पत्ति को उसकी आंखों के सामने एक छलिनी चुराये जाती थी। लीला को ऐसा क्रोध आया कि इसी समय चलकर इस कुल्टा को आडे हाथों लूं, ऐसा दुत्कारूं वह भी याद करें, खडे-,खडे निकाल दूं। वह पत्नी भाव जो बहुत दिनो से सो रहा था, जाग उठा और विकल करने लगा। पर उसने जब्त किया। वेग में दौडती हुई तृष्णाएं अक्समात् न रोकी जा सकती थी। वह उलटे पांव भीतर लौट आयी और मन को शांत करके सोचने लगीवह रूप रंग में, हाव-भाव में, नखरे-तिल्ले में उस दुष्टा की बराबरी नही कर सकती। बिलकुल चांद का टुकडा है, अंग-अंग में स्फूर्ति भरी हुई है, पोर-पोर में मद छलक रहा है। उसकी आंखों में कितनी तृष्णा है। तृष्णा नही, बल्कि ज्वाला ! लीला उसी वक्त आइने के सामने गयी । आज कई महीनो के बाद उसने आइने में अपनी सूरत देखी। उस मुख से एक आह निकल गयी। शोक न उसकी कायापलट कर दी थी। उस रमणी के सामने वह ऐसी लगती थी जैसे गुलाब के सामने जूही का फूल
सीतासरन का खुमार शाम को टूटा । आखें खुलीं तो सामने लीला को खडे मुस्करातेदेखा।उसकी अनोखी छवि आंखों में समा गई। ऐसे खुश हुए मानो बहुत दिनो के वियोग के बाद उससे भेंट हुई हो। उसे क्या मालूम था कि यह रुप भरने के लिए कितने आंसू बहाये है; कैशों मे यह फूल गूंथने के पहले आंखों में कितने मोती पिरोये है। उन्होनें एक नवीन प्रेमोत्साह से उठकर उसे गले लगा लिया और मुस्कराकर बोलेआज तो तुमने बडे-बडे शास्त्र सजा रखे है, कहां भागूं ?
लीला ने अपने ह्रदय की ओर उंगली दिखकर कहा -यहा आ बैठो बहुत भागे फिरते हो, अब तुम्हें बांधकर रखूगीं । बाग की बहार का आनंद तो उठा चुके, अब इस अंधेरी कोठरी को भी देख लो।
सीतासरन ने जज्जित होकर कहाउसे अंधेरी कोठरी मत कहो लीला वह प्रेम का मानसरोवर है !
इतने मे बाहर से किसी मित्र के आने की खबर आयी। सीताराम चलने लगे तो लीला ने हाथ उनका पकडकर हाथ कहामैं न जाने दूंगी।
     सीतासरन-- अभी आता हूं।
     लीलामुझे डर है कहीं तुम चले न जाओ।
सीतासरन बाहर आये तो मित्र महाशय बोले आज दिन भर सोते हो क्या ? बहुत खुश  नजर आते हो। इस वक्त तो वहां चलने की ठहरी थी न ? तुम्हारी राह देख रही है।
सीतासरनचलने को तैयार हूं, लेकिन लीला जाने नहीं देगीं।
मित्रनिरे गाउदी ही रहे। आ गए फिर बीवी के पंजे में ! फिर किस बिरते पर गरमाये थे ?
सीतासरनलीला ने घर से निकाल दिया था, तब आश्रय ढूढता फिरता था। अब उसने द्वार खोल दिये है और खडी बुला रही है।
मित्रआज वह आनंद कहां ? घर को लाख सजाओ  तो क्या बाग हो जायेगा ?
सीतासरनभई, घर बाग नही हो सकता, पर स्वर्ग हो सकता है। मुझे इस वक्त अपनी क्षद्रता पर जितनी लज्जा आ रही है, वह मैं ही जानता हूं। जिस संतान शोक में उसने अपने शरीर को घुला डाला और अपने रूप-लावण्य को मिटा दिया उसी शोक को केवल मेरा एक इशारा पाकर उसने भुला दिया। ऐसा भुला दिया मानो कभी शोक हुआ ही नही ! मैं जानता हूं वह बडे से बडे कष्ट सह सकती है। मेरी रक्षा उसके लिए आवश्यक है। जब अपनी उदासीनता के कारण उसने मेरी दशा बिगडते देखी तो अपना सारा शोक भूल गयी। आज मैंने उसे अपने आभूषण पहनकर मुस्कराते हुंए देखा तो मेरी आत्मा पुलकित हो उठी । मुझे ऐसा मालूम हो रहा है कि वह स्वर्ग की देवी है और केवल मुझ जैसे दुर्बल प्राणी की रक्षा करने भेजी गयी है। मैने उसे कठोर शब्द कहे, वे अगर अपनी सारी सम्पत्ति बेचकर भी मिल सकते, तो लौटा लेता। लीला वास्तव में स्वर्ग की देवी है!

कौशल



पंडित बलराम शास्त्री की धर्मपत्नी माया को  बहुत  दिनों से एक हार की लालसा थी और वह सैकडो ही बार पंडित जी से उसके लिए आग्रह कर चुकी थी, किन्तु पण्डित जी हीला-हवाला करते रहते थे। यह तो साफ-साफ ने कहते थे कि मेरे पास रूपये नही हैइनसे उनके पराक्रम में बट्टा लगता थातर्कनाओं की शरण लिया करते थे। गहनों से कुछ लाभ नहीं एक तो धातु अच्छी नहीं मिलती,श् उस पर सोनार रुपसे के आठ-आठ आने कर देता है और सबसे बडी बात यह है कि घर में गहने रखना चोरो को नेवता देन है। घडी-भर श्रृगांर के लिए इतनी विपत्ति सिर पर लेना मूर्खो का काम है। बेचारी माया तर्क शास्त्र न पढी थी, इन युक्तियों के सामने निरूत्तर हो जाती थी। पडोसिनो को देख-देख कर उसका जी ललचा करता था, पर दुख किससे कहे। यदि पण्डित जी ज्यादा मेहनत करने के योग्य होते तो यह मुश्किल आसान हो जाती । पर वे आलसी जीव थे, अधिकांश समय भोजन और विश्राम  में व्यतित किया करते थे। पत्नी जी की कटूक्तियां सुननी मंजूर थीं, लेकिन निद्रा की मात्रा में कमी न कर सकते थे।
     एक दिन पण्डित जी पाठशाला से आये तो देखा कि माया के गले में सोने का हार विराज रहा है। हार की चमक से उसकी मुख-ज्योति चमक उठी थी। उन्होने उसे कभी इतनी सुन्दर न समझा था। पूछा यह हार किसका है?
     माया बोलीपडोस में जो बाबूजी रहते हैं उन्ही की स्त्री का है।
आज उनसे मिलने गयी थी, यह हार देखा , बहुत पसंद आया। तुम्हें दिखाने के लिए पहन कर चली आई। बस, ऐसा  ही एक हार मुझे बनवा  दो।
     पण्डितदूसरे की चीज नाहक मांग लायी। कहीं चोरी हो जाए तो हार तो बनवाना ही पडे, उपर से बदनामी भी हो।
     मायामैंतो ऐसा ही हार लूगी। २० तोले का है।
पण्डितफिर वही जिद।
मायाजब सभी पहनती हैं तो मै ही क्यों न पहनूं?
पण्डितसब कुएं में गिर पडें तो तुम भी कुएं में गिर पडोगी। सोचो तो, इस वक्त इस हार के बनवाने में ६०० रुपये लगेगे। अगर १ रु० प्रति सैकडा ब्याज रखलिया जाय ता वर्ष मे ६०० रू० के लगभग १००० रु० हो जायेगें। लेकिन ५ वर्ष में तुम्हारा हार मुश्किल से ३०० रू० का रह जायेगा। इतना बडा नुकसान उठाकर हार पहनने से क्या सुख? सह हार वापस कर दो , भोजन करो और आराम से पडी रहो। यह कहते हुए पण्डित जी बाहर चले गये।
     रात को एकाएक माया ने शोर मचाकर कहा चोर,चोर,हाय, घर में चोर , मुझे घसीटे लिए जाते हैं।
     पण्डित जी हकबका कर उठे और बोले कहा, कहां? दौडो,दौडो।
मायामेरी कोठारी में गया है। मैनें उसकी परछाईं देखी ।
पण्डितलालटेन लाओं, जरा मेरी लकडी उठा लेना।
मायामुझसे तो डर के उठा नहीं जाता।
कई आदमी बाहर से बोलेकहां है पण्डित जी, कोई सेंध पडी है क्या?
मायानहीं,नहीं, खपरैल पर से उतरे हैं। मेरी नीदं खुली तो कोई मेरे ऊपर झुका हुआ था। हाय रे, यह तो हार ही ले गया, पहने-पहने सो गई थी। मुए ने गले से निकाल लिया । हाय भगवान,
पण्डिततुमने हार उतार क्यां न दिया था?
माया-मै क्या जानती थी कि आज ही यह मुसीबत सिर पडने वाली है, हाय भगवान्,
पण्डितअब हाय-हाय करने से क्या होगा? अपने कर्मों को रोओ। इसीलिए कहा करता था कि सब घडी बराबर नहीं जाती, न जाने कब क्या हो जाए। अब आयी समझ में मेरी बात, देखो, और कुछ तो न ले गया?
पडोसी लालटेन लिए आ पहुंचे। घर में कोना कोना देखा। करियां देखीं, छत पर चढकर देखा, अगवाडे-पिछवाडे देखा, शौच गृह में झाका, कहीं चोर का पता न था।
एक पडोसीकिसी जानकार आदमी का काम है।
दूसरा पडोसीबिना घर के भेदिये के कभी चोरी नहीं होती। और कुछ तो नहीं ले गया?
मायाऔर तो कुड नहीं गया। बरतन सब पडे हुए हैं। सन्दूक भी बन्द पडे है। निगोडे को ले ही जाना था तो मेरी चीजें ले जाता । परायी चीज ठहरी। भगवान् उन्हें कौन मुंह दिखाऊगी।
पण्डितअब गहने का मजा मिल गया न?
मायाहाय, भगवान्, यह अपजस बदा था।
पण्डितकितना समझा के हार गया, तुम न मानीं, न मानीं। बात की बात में ६००रू० निकल गए, अब देखूं भगवान कैसे लाज रखते हैं।
मायाअभागे मेरे घर का एक-एक तिनका चुन ले जाते तो मुझे इतना दु:ख न होता। अभी बेचारी ने नया ही बनावाया था।
पण्डितखूब मालूम है, २० तोले का था?
माया२० ही तोले को तो कहती थी?  
पण्डितबधिया बैठ गई और क्या?
मायाकह दूंगी घर में चोरी हो गयी। क्या लेगी? अब उनके लिए कोई चोरी थोडे ही करने जायेगा।
पण्डित तुम्हारे घर से चीज गयी, तुम्हें देनी पडेगी। उन्हे इससे क्या प्रयोजन कि चोर ले गया या तुमने उठाकर रख लिया। पतिययेगी ही नही।
माया तो इतने रूपये कहां से आयेगे?
पण्डितकहीं न कहीं से तो आयेंगे ही,नहीं तो लाज कैसे रहेगी: मगर की तुमने बडी भूल ।
मायाभगवान् से मंगनी की चीज भी न देखी गयी। मुझे काल ने घेरा था, नहीं तो इस घडी भर गले में डाल लेने से ऐसा कौन-सा बडा सुख मिल गया? मै हूं ही अभागिनी।
पण्डितअब पछताने और अपने को कोसने से क्या फायदा? चुप हो के बैठो, पडोसिन से कह देना, घबराओं नहीं, तुम्हारी चीज जब तक लौटा न देंगें, तब तक हमें चैन न आयेगा।
              
पण्डित बालकराम को अब नित्य ही चिंता रहने लगी कि किसी तरह  हार बने। यों अगर टाट उलट देते तो कोई बात न थी । पडोसिन को सन्तोष ही करना पडता, ब्राह्मण से डाडं कौन लेता , किन्तु पण्डित जी ब्राह्मणत्व के गौरव को इतने सस्ते दामों न बेचना चाहते थे। आलस्य छोडंकर धनोपार्जन में दत्तचित्त हो गये।
     छ: महीने तक उन्होने  दिन को  दिन और रात को रात नहीं जाना। दोपहर को सोना छोड  दिया, रात को भी बहुत देर तक जागते। पहले केवल एक पाठशाला में पढाया करते थे। इसके सिवा वह ब्राह्मण के लिए खुले हुए एक सौ एक व्यवसायों में सभी को निंदनिय समझते थे। अब पाठशाला से आकर संध्या एक जगह भगवत् की कथा कहने जाते वहां से लौट कर ११-१२ बजे रात तक जन्म कुंडलियां, वर्ष-फल आदि बनाया करते। प्रात:काल मन्दिर में  दुर्गा जी का पाठ करते । माया पण्डित जी का अध्यवसाय देखकर कभी-कभी पछताती कि  कहां से मैने  यह विपत्ति सिर पर  लीं कहीं बीमार पड जायें तो लेने के देने पडे। उनका शरीर क्षीण होते देखकर उसे अब यह चिनता व्यथित  करने जगी। यहां तक कि पांच महीने गुजर गये।
एक दिन संध्या समय वह दिया-बत्ति करने जा रही थी कि पण्डित जी आये, जेब से पुडिया निकाल कर उसके सामने फेंक दी और बोलेलो, आज तुम्हारे ऋण से मुक्त हो गया।
माया ने पुडिया खोली तो उसमें सोने का हार था, उसकी चमक-दमक, उसकी सुन्दर बनावट देखकर उसके अन्त:स्थल में गुदगदी सी होने लगी । मुख पर आन्नद की आभा दौड गई। उसने कातर नेत्रों से देखकर पूछाखुश हो कर दे रहे हो या नाराज होकर1.
पण्डितइससे क्या मतलब? ऋण तो चुकाना ही पडेगा, चाहे खुशी  हो या नाखुशी।
मायायह ऋण नहीं है।
पण्डितऔर क्या है, बदला सही।
मायाबदला भी नहीं है।
पण्डित फिर क्या है।
मायातुम्हारी ..निशानी?
पण्डिततो क्या ऋण के लिए कोई दूसरा हार बनवाना पडेगा?
मायानहीं-नहीं, वह हार चारी नहीं गया था। मैनें झूठ-मूठ शोर मचाया था।
पण्डितसच?
मायाहां, सच कहती हूं।
पण्डितमेरी कसम?
मायातुम्हारे चरण छूकर कहती हूं।
पण्डिततो तमने मुझसे  कौशल किया था?
माया-हां?
पण्डिततुम्हे मालूम है, तुम्हारे कौशल का मुझे क्या मूल्य देना पडा।
मायाक्या ६०० रु० से ऊपर?
पण्डितबहुत ऊपर? इसके लिए मुझे अपने आत्मस्वातंत्रय को बलिदान करना पडा।

रविवार, 24 अप्रैल 2011

नैराश्य लीला




पंडित हृदयनाथ अयोध्या के एक सम्मानित पुरूष थे। धनवान तो नहीं लेकिन खाने पिने से खुश थे। कई मकान थे, उन्ही के किराये पर गुजर होता था। इधर किराये  बढ गये थे, उन्होंने अपनी सवारी भी रख ली थी। बहुत विचार शील आदमी थे, अच्छी शिक्षा पायी थी। संसार का काफी तरजुरबा था, पर क्रियात्मक शकित् से व्रचित थे, सब कुछ न जानते थे। समाज उनकी आंखों में एक भयंकर भूत था जिससे सदैव डरना चाहिए। उसे जरा भी रूष्ट किया तो फिर  जाने की खैर नहीं। उनकी स्त्री जागेश्वरी उनका प्रतिबिम्ब, पति के विचार उसके विचार और पति की इच्छा उसकी इच्छा थी, दोनों प्राणियों में कभी मतभेद न होता था। जागेश्चरी खिव की उपासक थी। हृदयनाथ वैष्णव थे, दोनो धर्मनिष्ट थे। उससे कहीं अधिक , जितने समान्यत: शिक्षित लोग हुआ करते है। इसका कदाचित् यह कारण था कि एक कन्या के सिवा उनके और कोई सनतान न थी। उनका विवाह तेरहवें वर्ष में हो गया था और माता-पिता की अब यही लालसा थी कि भगवान इसे पुत्रवती करें तो हम लोग नवासे के नाम अपना सब-कुछ लिख लिखाकर निश्चित हो जायें।
किन्तु विधाता को कुछ और ही मन्जूर था। कैलाश कुमारी का अभी गौना भी न हुआ था, वह अभी तक यह भी न जानने पायी थी कि विवाह का आश्य क्या है कि उसका सोहाग उठ गया। वैधव्य ने उसके जीवन की अभिलाषाओं का दीपक बुझा दिया।
     माता और पिता विलाप कर रहे थे, घर में कुहराम मचा हुआ था, पर कैलाशकुमारी भौंचक्की हो-हो कर सबके मुंह की ओर ताकती थी। उसकी समझ में यह न आता था कि ये लोग रोते क्यों हैं। मां बाप की इकलौती बेटी थी। मां-बाप के अतिरिक्त वह किसी तीसरे व्यक्ति को उपने लिए आवश्यक न समझती थी। उसकी सुख कल्पनाओं में अभी तक पति का प्रवेश न हुआ था। वह समझती थी, स्त्रीयां पति के मरने पर इसलिए राती है कि वह उनका और बच्चों का पालन करता है। मेरे घर में किस बात  की कमी है? मुझे इसकी क्या चिन्ता है कि खायेंगे क्या, पहनेगें क्या? मुढरे जिस चीज की जरूरत होगी बाबूजी तुरन्त ला देंगे, अम्मा से जो चीज मागूंगी वह दे देंगी। फिर रोऊं क्यों?वह अपनी मां को रोते देखती तो रोती, पती के शोक से नहीं, मां के प्रेम से । कभी सोचती, शायद यह लोग इसलिए रोते हैं कि कहीं मैं कोई ऐसी चीज न मांग बैठूं जिसे वह दे न सकें। तो मै ऐसी चीज मांगूगी  ही क्यो? मै अब भी तो उन से कुछ नहीं मांगती, वह आप ही मेरे  लिए एक न एक चीज नित्य लाते रहते हैं? क्या मैं अब कुछ और हो जाऊगीं? इधर माता का यहा हाल था कि बेटी की सूरत देखते ही आंखों से आंसू की झडी लग जाती। बाप की दशा और भी करूणाजनक थी। घर में आना-जाना छोड दिया। सिर पर हाथ धरे कमरे में अकेले उदास बैठे रहते। उसे विशेष दु:ख इस बात का था कि सहेलियां भी अब उसके साथ खेलने न आती। उसने उनके घर लाने की माता से आज्ञा मांगी तो फूट-फूट कर रोने लगीं माता-पिता की यह दशा देखी तो उसने उनके सामने जाना छोड दिया, बैठी किस्से कहानियां पढा करती। उसकी एकांतप्रियता का मां-बाप ने कुछ और ही अर्थ समझा। लडकी शोक के मारे घुली जाती है, इस वज्राघात ने उसके हृदय को टुकडे-टुकडे कर डाला है।
एक दिन हृदयनाथ ने जागेश्वरी से कहाजी चाहता है घर छोड कर कहीं भाग जाऊं। इसका कष्ट अब नहीं देखा जाता।
जागेश्वरीमेरी तो भगवान से यही प्राथर्ना है कि मुझे संसार से उठा लें। कहां तक छाती पर पत्थर कीस सिल रखूं।
हृदयनाथकिसी भातिं इसका मन बहलाना चाहिए, जिसमें शोकमय विचार आने ही न पायें। हम लोंगों को दु:खी और रोते देख कर उसका दु:ख और भी दारूण हो जाता है।
जागेश्वरीमेरी तो बुद्धि कुछ काम नहीं करती।
हृदयनाथहम लोग यों ही मातम करते रहे तो लडंकी की जान पर बन जायेगी। अब कभी कभी थिएटर दिखा दिया, कभी घर में गाना-बजाना करा दिया। इन बातों से उसका दिल बहलता रहेगा।
जागेशवरीमै तो उसे देखते ही रो पडती हूं। लेकिन अब जब्त करूंगी तुम्हारा विचार बहुत अच्छा है। विना दिल बहलाव के उसका शोक न दूर होगा।
हृदयनाथमैं भी अब उससे दिल बहलाने वाली बातें किया करूगां। कल एक सैरबीं लाऊगा, अच्छे-अच्छे दृश्य जमा करूगां। ग्रामोफोन तो अज ही मगवाये देता हूं। बस उसे हर वक्त किसी न किसी कात में लगाये रहना चाहिए। एकातंवास शोक-ज्वाला के लिए समीर के समान है।
उस दिन से जागेश्वरी ने कैलाश कुमारी के लिए विनोद और प्रमोद के समान लमा करनेशुरू किये। कैलासी मां के पास आती तो उसकी आंखों में आसू की बूंदे न देखती, होठों पर हंसी की आभा दिखाई देती। वह मुस्करा कर कहती बेटी, आज थिएटर में बहुत अच्छा तमाशा होने वाला है, चलो देख आयें। कभी गंगा-स्नान की ठहरती, वहां मां-बेटी किश्ती पर बैठकर नदी में जल विहार करतीं, कभी दोनों संध्या-समय पाकै की ओर चली जातीं। धीरे-धीरे सहेलियां भी आने लगीं। कभी सब की सब बैठकर ताश खेलतीं। कभी गाती-बजातीं। पण्डित हृदय नाथ ने  भी विनोद की सामग्रियां जुटायीं। कैलासी को देखते ही मग्न होकर बोलतेबेटी आओ, तुम्हें आज काश्मीर के दृश्य दिखाऊं: कभी ग्रामोफोन बजाकर उसे सुनाते। कैलासी इन सैर-सपाटों का खूब आन्नद उठाती। अतने सुख से उसके दिन कभी न गुजरे थे।
                     2
इस भांति दो वर्ष बीत गये। कैलासी सैर-तमाशे की इतनी आदि हो गयी कि एक दिन भी थिएटर न जाती तो बेकल-ससी होने लगती। मनोरंजन नवीननता का दास है और समानता का शत्रु। थिएटरों के बाद सिनेमा की सनक सवार हुई। सिनेमा के बाद मिस्मेरिज्म और हिपनोटिज्म के तमाशों की सनक सवार हुई। सिनेमा के बाद मिस्मेरिज्म और हिप्नोटिज्म के तमाशों की। ग्रामोफोन के नये रिकार्ड आने लगे। संगीत का चस्का पड गया। बिरादरी में कहीं उत्सव होता तो मां-बेटी अवश्स्य जातीं। कैलासी नित्य इसी नशे में डूबी रहती, चलती तो कुछ गुनगुनती हुई, किसी से बाते करती तो वही थिएटर की और सिनेमा की। भौतिक संसार से अब कोई वास्ता न था, अब उसका निवास कल्पना संसार में था। दूसरे लोक की निवासिन होकर उसे प्राणियों से  कोई सहानुभूति न रहीं, किसी के दु:ख पर जरा दया न आती। स्वभाव में उच्छृंखलता का विकास हुआ, अपनी सुरूचि पर गर्व करने लगी। सहेलियों से  डींगे मारती, यहां के लोग मूर्ख है, यह सिनेमा की कद्र क्या करेगें। इसकी कद्र तो पश्चिम के लोग करते है। वहां मनोरंजन की सामाग्रियां उतनी ही आवश्यक है जितनी हवा। जभी तो वे उतने प्रसनन-चित्त रहते है, मानो किसी बात की चिंता ही नहीं। यहां किसी को इसका रस ही नहीं। जिन्हें भगवान  ने सामर्थ्य भी दिया है वह भी सरंशाम से मुह ढांक कर पडे रहमे हैं। सहेलियां कैलासी की यह गर्व-पूर्ण बातें सुनतीं और उसकी और भी प्रशंसा करतीं। वह उनका अपमान करने के आवेश में आप ही हास्यास्पद बन जाती थी।
     पडोसियों में इन सैर-सपाटों की चर्चा होने लगी। लोक-सम्मति किसी की रिआयत नहीं करती। किसी ने सिर पर टोपी टेढी रखी और पडोसियों की आंखों में खुबा कोई जरा अकड कर चला और पडोसियों ने अवाजें कसीं। विधवा के लिए पूजा-पाठ है, तीर्थ-व्रत है, मोटा खाना पहनना है, उसे विनोदऔर विलास, राग और रंग की क्या जरूरत? विधाता ने उसके द्वार बंद रि दिये है। लडकी प्यारी सही, लेकिन शर्म और हया भी कोई चीज होती है। जब मां-बाप ही उसे सिर चढाये हुए है तो उसका क्या दोष? मगर एक  दिन आंखे खुलेगी अवश्य।महिलाएं कहतीं, बाप तो मर्द है, लेकिन मां कैसी है। उसको जरा भी विचार नहीं कि दुनियां क्या कहेगी। कुछ उन्हीं की एक दुलारी बेटी थोडे ही है, इस भांतिमन बढाना अच्छा नहीं।
     कुद दिनों तक तो यह खिचडी आपस में पकती रही। अंत को एक दिन कई महिलाओं ने जागेश्वरी के घर पदार्पण किया। जागेश्वरी ने उनका बडा आदर-सत्कार किया। कुछ देर तक इधर-उधर की बातें करने के बाद एक महिला बोलीमहिलाएं रहस्य की बातें करने में बहुत अभ्यस्त होती हैबहन, तुम्हीं मजे में हो कि हंसी-खुसी में दिन काट देती हो। हमुं तो दिन पहाड हो जाता है। न कोई काम न धंधा, कोई कहां तक बातें करें?
     दूसरी देवी ने आंखें मटकाते हुए कहाअरे, तो यह तो बदे की बात है। सभी के दिन हंसी-खुंशी से कटें तो रोये कौन। यहां तो सुबह से शाम तक चक्की-चूल्हे से छुट्टी नहीं मिलती: किसी बच्चे को दस्त आ रहें तो किसी को ज्वर चढा हुआ है: कोई मिठाइयों की रट कहा है: तो कोई पैसो के लिए महानामथ मचाये हुए है। दिन भर हाय-हाय करते बीत जाता है। सारे दिन कठपुतलियों की भांति नाचती रहती हूं।
     तीसरी रमणी ने इस कथन का रहस्यमय भाव से विरोध कियाबदे की बात नहीं, वैसा दिल चाहिए। तुम्हें तो कोई राजसिंहासन पर बिठा दे तब भी तस्कीन न होगी। तब और भी हाय-हाय करोगी।
     इस पर एक वृद्धा ने कहानौज ऐसा दिल: यह भी कोई दिल है कि घर में चाहे आग लग जाय, दुनिया में कितना ही उपहास हो रहा हो, लेकिन आदमी अपने राग-रंग में मस्त रह। वह दिल है कि पत्थर : हम गृहिणी कहलाती है, हमारा काम है अपनी गृहस्थी में रत रहना। आमोद-प्रमोद में दिन काटना हमारा काम नहीं।
     और महिलाओं ने इन निर्दय व्यंग्य पर लज्जित हो कर सिर झुका लिया। वे जागेश्वरी की चटुकियां लेना चाहती थीं। उसके साथ बिल्ली और चूहे की निर्दयी क्रीडा करना चाहती थीं। आहत को तडपाना उनका उद्देश्य था। इस खुली हुई चोट ने उनके पर-पीडन प्रेम के लिए कोई गुंजाइश न छोडी: किंतु जागेश्वरी को ताडना मिल गयी। स्त्रियों के विदा होने के बाद उसने जाकर पति से यह सारी कथा सुनायी। हृदयनाथ उन पुरूषों में न थे जो प्रत्येक अवसर पर अपनी आत्मिक स्वाधीनता का स्वांग भरते है, हठधर्मी को आत्म-स्वातन्त्रय के नाम से छिपाते है। वह सचिन्त भाव से बोले---तो अब क्या होगा?
     जागेश्वरीतुम्हीं कोई उपाय सोचो।
     हृदयनाथपडोसियों ने जो आक्षेप  किया है वह सवर्था उचित है। कैलाशकुमारी के स्वभाव में मुझें एक सविचित्र अन्तर दिखाई दे रहा है। मुझे स्वंम ज्ञात हो रहा है कि उसके मन बहलाव के लिए हम लोंगों ने जो उपाय निकाला है वह मुनासिब नहीं है। उनका यह कथन सत्य है कि विधवाओं के लिए आमोद-प्रामोद वर्जित है। अब हमें यह परिपाटी छोडनी पडेगी।
     जागेश्वरीलेकिन कैलासी तो अन खेल-तमाशों के बिना एक दिन भी नहीं रह सकती।
     हृदयनाथउसकी मनोवृत्तियों को बदलना पडेगा।

                          3
शनै:शनै यह विलोसोल्माद शांत होने लगा। वासना का तिरस्कार किया जाने लगा। पंडित जी संध्या समय ग्रमोफोन न बजाकर कोई धर्म-ग्रंथ सुनते। स्वाध्याय, संसम उपासना में मां-बेटी रत रहने लगीं। कैलासी को गुरू जी ने दीक्षा दी, मुहल्ले और बिरादरी की स्त्रियां आयीं, उत्सव मनाया गया।
     मां-बेटी अब किश्ती पर सैर करने के लिए गंगा न जातीं, बल्कि स्नान करने के लिए। मंदिरो में नित्य जातीं। दोनां एकादशी का निर्जल व्रम रखने लगीं। कैलासी को गुरूजी नित्य संध्या-समय धर्मोपदेश करते। कुछ दिनों तक तो कैलासी को यह विचार-परिर्वतन बहुत कष्टजनक मालूम हुआ, पर धर्मनिष्ठा नारियों का स्वाभाविक गुण है, थोडे ही दिनो में उसे धर्म से रूची हो गयी। अब उसे अपनी अवस्था का ज्ञान होने लगा था। विषय-वासना से चित्त आप ही आप खिंचने लगा। पति का यथार्थ आशय समझ में आने लगा था। पति  ही स्त्री का सच्चा पथ प्रदर्शक और सच्चा सहायक है। पतिविहीन होना किसी घोर पाप का प्रायश्चित है। मैने पूर्व-जन्म में कोई अकर्म किया होगा। पतिदेव जीवित होते तो मै फिर माया में फंस जाती। प्रायश्चित कर अवसर कहां मिलता। गुरूजी का वचन सत्य है कि परमात्मा ने तुम्हें पूर्व कर्मों के प्रायश्चित का अवसर दिया है। वैधव्य यातना नहीं है, जीवोद्धर का साधन है। मेरा उद्धार त्याग, विराग, भक्ति और उपासना से होगा।
     कुछ दिनों के बाद उसकी धार्मिक वृत्ति इतनी प्रबल हो गयी, कि अन्य प्राणियों से वह पृथक् रहने लगी। किसी को न छूती, महरियों से दूर रहती, सहेलियों से गले तक न मिलती, दिन में दो-दो तीन-तीन बार स्नान करती, हमेशा कोई न कोई धर्म-ग्रन्थ पढा करती। साधु महात्माओं के सेवा-सत्कार में उसे आत्मिक सुख प्राप्त होता। जहां किसी  महात्मा के आने की खबर पाती, उनके दर्शनों के लिए कवकल हो जाती। उनकी अमृतवाणी सुनने से जी न भरता। मन संसार से विरक्त होने लगा। तल्लीनता की अवस्था प्राप्त हो गयी। घंटो ध्यान और चिंतन में मग्न रहती। समाजिक बंधनो से घृण हो गयी। घंटो ध्यान और चिंतन में मग्न रहती। हृदय स्वाधिनता के लिए लालायित हो गया: यहां तक कि तीन ही बरसों में उसने संन्यास ग्रहण करने का निश्चय कर लिया।
     मां-बाप को यह समाचार ज्ञात हुआ ता होश उड गये। मां बोलीबेटी, अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है कि तुम ऐसी बातें सोचती हो।
     कैलाशकुमारीमाया-मोह से जितनी जल्द निवृत्ति हो जाय उतना ही अच्छा।
     हृदयनाथक्या अपने घर मे रहकर माया-मोह से मुक्त नहीं हो सकती हो? माया-मोह का स्थान मन है, घर नहीं।
     जागेश्वरीकितनी बदनामी होगी।
     कैलाशकुमारीअपने को भगवान् के चरणों पर अर्पण कर चुकी तो बदनामी क्या चिंता?
     जागेश्वरीबेटी, तुम्हें न हो , हमको तो है। हमें तो तुम्हारा ही सहरा है। तुमने जो संयास लिया तो हम किस आधार पर जियेंगे?
     कैलाशकुमारीपरमात्मा ही सबका आधार है। किसी दूसरे प्राणी का आश्रय लेना भूल है।
     दूसरे दिन यह बात मुहल्ले वालों के कानों में पहुंच गयी। जब कोई अवस्था असाध्य हो जाती है तो हम उस पर व्यंग करने लगते है। यह तो होना ही था, नयी बात क्या हुई, लडिकियों को इस तरह स्वछंद नहीं कर दिया जाता, फूले न समाते थे कि लडकी ने कुल का नाम उज्जवल कर दिया। पुराण पढती है, उपनिषद् और वेदांत का पाठ करती है, धार्मिक समस्याओं पर ऐसी-ऐसी दलीलें करती है  कि बडे-बडे विद्वानों की जबान बंद हो जाती है तो अब क्यों पछताते है? भद्र पुरूषों में कई दिनों तक यही आलोचना हाती रही। लेकिन जैसे अपने बच्चे के दौडते-दौडते धम से गिर पडने पर हम पहले क्रोध के आवेश में उसे झिडकियां सुनाते है, इसके बाद गोद में बिठाकर आंसू पोछतें और फुसलाने का लगते है: उसी तरह इन भद्र पुरूषों ने व्य्रग्य के बाद इस गुत्थी के सुलझाने का उपाय सोचना शुरू किया। कई सज्जन हृदयनाथ के पास आये और सिर झुकाकर बैठ गये। विषय का आरम्भ कैसे हो?
     कई मिनट के बाद एक सज्जन ने कहा ससुना है डाक्टर गौड का प्रस्ताव आज बहुमत से स्वीकृत हो गया।
     दूसरे महाश्य बोलेयह लोग हिंदू-धर्म का सर्वनाश करके छोडेगें। कोई क्या करेगा, जब हमारे साधु-महात्मा, हिंदू-जाति के स्तंभ है, इतने पतित हो गए हैं कि  भोली-भाली युवतियों को बहकाने में संकोच नहीं करते तो सर्वनाश होनें में रह ही क्या गया।
     हृदयनाथयह विपत्ति तो मेरे सिर ही पडी हुई है। आप लोगों को तो मालूम होगा।
पहले महाश्य आप ही  के सिर क्यों, हम सभी के सिर पडी हुई है।
दूसरो महाश्य समस्त जाति के सिर कहिए।
हृदयनाथउद्धार का कोई उपाय सोचिए।
पहले महाश्यअपने समझाया नहीं?
हृदयनाथसमझा के हार गया। कुछ सुनती ही नहीं।
तीसरे महाश्यपहले ही भूल हुई। उसे इस रास्ते पर उतरना ही नहीं चाहिए था।
     पहले महाशयउस पर पछताने से क्या होगा? सिर पर जो पडी है, उसका उपाय सोचना चाहिए। आपने समाचार-पत्रों में देखा होगा, कुछ लोगों की सलाह है कि विधवाओं से अध्यापको का काम लेना चाहिए। यद्यपि मैं इसे भी बहुत अच्छा नहीं समझता,पर संन्यासिनी बनने से तो कहीं अच्छा है। लडकी अपनी आंखों के सामने तो रहेगी। अभिप्राय केवल यही है कि कोई ऐसा कामा होना चाहिए जिसमें लडकी का मन लगें। किसी अवलम्ब के बिना मनुष्य को भटक जाने की शंका सदैव बनी रहती है। जिस घर में कोई नहीं रहता उसमें चमगादड बसेरा कर लेते हैं।
     दूसरे महाशय सलाह तो अच्छी है। मुहल्ले की दस-पांच कन्याएं पढने के लिए बुला ली जाएं। उन्हे किताबें, गुडियां आदि इनाम मिलता रहे तो बडे शौक से आयेंगी। लडकी का मन तो लग जायेगा।
     हृदयनाथदेखना चाहिए। भरसक समझाऊगां।
     ज्यों ही यह लोग विदा हुए: हृदयनाथ ने कैलाशकुमारी के सामने यह तजवीज पेश की  कैलासी को सुन्यस्त के उच्च पद के सामने अध्यापिका बनना अपमानजनक जान पडता था। कहां वह महात्माओं का सत्संग, वह पर्वतो की गुफा, वह सुरम्य प्राकृतिक दृश्य वहहिमराशि की ज्ञानमय ज्योति, वह मानसरावर और कैलास की शुभ्र छटा, वह आत्मदर्शन की विशाल कल्पनाएं, और कहां बालिकाओं को चिडियों की भांति पढाना। लेकिन हृदयनाथ कई दिनों तक लगातार से वा धर्म का माहातम्य उसके हृदय पर अंकित करते रहे। सेवा ही वास्तविक संन्यस है। संन्यासी केवल अपनी मुक्ति का इच्छुक होता है, सेवा व्रतधरी अपने को परमार्थ की वेदी पर बलि दे देता है। इसका गौरव कहीं अधिक है। देखो, ऋषियों में दधीचि का जो यश है, हरिश्चंद्र की जो कीर्ति है, सेवा त्याग है, आदि। उन्होंने इस कथन की उपनिषदों और वेदमंत्रों से पुष्टि की यहां तक कि धीरे-धीरे कैलासी के विचारों में परिवतर्न होने लगा। पंडित जी ने मुहल्ले वालों की लडकियों को एकत्र किया, पाठशाला का जन्म हो गया। नाना प्रकार के चित्र और खिलौने मंगाए। पंडित जी स्वंय कैलाशकुमारी के साथ लडकियों को पढाते। कन्याएं शौक से आतीं। उन्हे यहां की पढाई खेल मालूम   होता। थोडे ही हदनों में पाठशाला की धूम हो गयी, अन्य मुहल्लों की कन्याएं  भी आने लगीं।
कैलास कुमारी की सेवा-प्रवृत्ति दिनों-दिन तीव्र होने लगी। दिन भर लडकियों को लिए रहती: कभी पढाती, कभी उनके साथ खेलती, कभी सीना-पिरोना सिखाती। पाठशाला ने परिवार का रूप धारण कर लिया। कोई लडकी बीमार हो जाती तो तुरन्त उसके घर जाती, उसकी सेवा-सुश्रूषा करती, गा कर या कहानियां सुनाकर उसका दिल बहलाती।
     पाठशाला को खुले हुए साल-भर हुआ था। एक लडकी को, जिससे वह बहुत प्रेम करती थी, चेचक निकल आयी। कैलासी उसे देखने गई। मां-बाप ने बहुत मना किया, पर उसने न माना। कहा, तुरन्त लौट आऊंगी। लडकी की हालत खराब थी। कहां तो रोते-रोते तालू सूखता था, कहां कैलासी को देखते ही सारे कष्ट भाग गये। कैलासी एक घंटे तक वहां रही। लडकी बराबर उससे बातें करती रही। लेकिन जब वह चलने को उठी तो लडकी ने रोना शुरू कर दिया। कैलासी मजबूर होकर बैठ गयी। थोडी देर बाद वह फिर उठी तो फिर लडकी की यह दशा हो गयी। लडकी उसे किसी तरह छोडती ही न थी। सारा दिन गुजर गया। रात को भी रात को लडकी ने जाने न दियां। हृदयनाथ उसे बुलाने को बार-बार आदमी भेजते, पर वह लडकी को छोडकर न जा सकती। उसे ऐसी शंका होती थी कि मैं यहां से चली और लडकी हाथ से गयी। उसकी मां विमाता थी। इससे कैलासी को उसके ममत्व पर विश्वास न होता था। इस प्रकार तीन दिनों तक वह वहां राही। आठों पहर बालिका के सिरहाने बैठी पंखा झ्लती रहती। बहुत थक जाती तो दीवार से पीठ टेक लेती। चौथे दिन लडकी की हालत कुछ संभलती हुई मालूम हुई तो वह अपने घर आयी। मगर अभी स्नान भी न करने पायी थी कि आदमी पहुंचाजल्द चलिए, लडकी रो-रो कर जान दे रही है।
     हृदयनाथ ने कहाकह दो, अस्पताल से कोई नर्स बुला लें।
     कैलसकुमारी-दादा, आप व्यर्थ में झुझलाते हैं। उस बेचारी की जान बच जाय, मै  तीन दिन नहीं, जीन महिने उसकी सेवा करने को तैयार हूं। आखिर यह देह  किस काम आएगी।
हृदयनाथतो कन्याएं कैसे पढेगी?
कैलासीदो एक दिन में वह अच्छी हो जाएगी, दाने मुरझाने लगे हैं, तब तक आप लरा इन लडकियों की देखभाल करते  रहिएगा।
हृदयनाथयह बीमारी छूत फैलाती है।
कैलासी(हंसकर) मर जाऊंगी  तो आपके सिर से एक विपत्ति टल जाएगी। यह कहकर उसने उधर की राह ली। भोजन की थाली परसी रह गयी।
     तब हृदयनाथ ने जागेश्वरी से कहा---जान पडता है, बहुत जल्द यह पाठशाला भी बन्द करनी पडेगी।
     जागेश्वरीबिना मांझी के नाव पार लगाना बहुत कठिन है। जिधर हवा पाती है, उधर बह जाती है।
हृदयनाथजो रास्ता निकालता हूं वही कुछ दिनों के बाद किसी दलदल में फंसा देता है। अब फिर बदनामी के समान होते नजर आ रहे है। लोग कहेंगें, लडकी दूसरों के घर जाती है और कई-कई दिन पडी रहती है। क्या करूं, कह दूं, लडकियों को न पढाया करो?
     जागेश्वरी इसके सिवा और हो क्या सकता है।
     कैलाशकुमारी दो दिन बाद लौटी तो हृदयनाथ ने पाठशाला बंद कर देने की समस्या उसके सामने रखी। कैलासी ने तीव्र स्वर से कहाअगर आपको बदनामी का इतना भय है तो मुझे विष देदीजिए। इसके सिवा बदनामी से बचने का और कोई उपाय नहीं है।
हृदयनाथबेटी संसार में रहकर तो संसार की-सी करनी पडेगी।
कैलासी तो कुछ मालूम भी तो हो कि संसार मुझसे क्या चाहता है। मुझमें जीव है, चेतना है, जड क्योंकर बन जाऊ। मुझसे यह नहीं हो सकता कि अपने को अभाहगन, दुखिया समझूं और एक टुकडा रोटी खाकर पडी रहूं। ऐसा क्यों करूं? संसार मुझे जो चाहे समझे, मै अपने को अभागिनी नहीं समझती। मै अपने आत्म-सम्मान की रक्षा आप कर सकती हूं। मैं इसे घोर अपमान समझती हूं कि पग-पग पर मुझ पर शंका की जाए, नित्य कोई चरवाहों की भांति मेरे पीछे लाठी लिए घूमता रहे कि किसी खेत में न जाने बूडू। यह दशा मेरे लिए असह्य हैं।
     यह कहकर कैलाशकुमारी वहां से चली गयी कि  कहीं मुंह से अनर्गल शब्द न निकल पडें। इधर कुछ दिनों से उसे अपनी बेकसी का यर्थाथ ज्ञान होने लगा था स्त्री पुरूष की कितली अधीन है, मानो स्त्री को विधाता ने इसलिए बनाया है कि पुरूषों के अधिन रहं यह सोचकर वह समाज के अत्याचार पर दांत पीसने लगती थी।
     पाठशाला तो दूसरे दिन बन्द हो गयी, किन्तु उसी दिन कैलाशकुमारी को पुरूषों से जलन होने लगी। जिस सुख-भोग से प्रारब्ध हमें वंचित कर देता है उससे हमे द्वेष हो जाता है। गरीब आदमी इसीलए तो  अमीरों से जलता है और धन की निन्दा करता है। कैलाशी बार-बार झुंझलाति कि स्त्री क्यों पुरूष पर इतनी अवलम्बित है? पुरूशष क्यों स्त्री के भग्य का विधायक है? स्त्री क्यों नित्य पुरूषों का आश्रय चाहे, उनका मुंह ताके? इसलिए न कि स्त्रियों में अभिमान नहीं है, आत्म सम्मान नहीं है। नारी हृदय के कोमल भाव, उसे कुत्ते का दुम हिलाना मालूम होने लगे। प्रेम कैसा। यह सब ढोग है, स्त्री  पुरूष के अधिन है, उसकी खुशमद न करे, सेवा न करे, तो उसका निर्वाह कैसे हो।
     एक दिन उसने अपने बाल गूंथे और जूडे में एक गुलाब का फूल लगा लिया। मां ने देखा तो ओठं से जीभ दबा ली। महरियों ने छाती पर हाथ रखे।
     इसी तरह एक दिन उसने रंगीन रेशमी साडी पहन ली। पडोसिनों में इस पर खूब आलोचनाएं हुईं।
     उसने एकादशी का व्रत रखनाउ छोड दिया जो पिछले आठ वर्षों से रखमी आयीं थी। कंघी और आइने को वह अब त्याज्य न समझती थी।
     सहालग के दिन आए। नित्य प्रति उसके द्वार पर से बरातें निकलतीं । मुहल्ले की स्त्रियां अपनी अटारियों पर खडी होकर देखती। वर के रंग रूप, आकर-प्रकार पर टिकाएं  होती, जागेश्वरी  से भी बिना एक आख देखे रहा नह जाता। लेकिन  कैलाशकुमारी  कभी भूलकर भी इन जालूसो  को न देखती। कोई बरात या विवाह की बात चलाता तो वह मुहं फेर लेती। उसकी दृष्टि में वह विवाह नहीं, भोली-भाली कन्याओं का शिकार था। बरातों को वह शिकारियों के कुत्ते समझती। यह विवाह नहीं बलिदान है।
तीज का व्रत आया। घरों की सफाई होने लगी। रमणियां इस व्रत को तैयारियां करनेलगीं। जागेश्वरी ने भी व्रत का सामान किया। नयी-नयी साडिया मगवायीं। कैलाशकुमारी के ससुराल से इस अवसर पर कपडे , मिठाईयां और खिलौने आया करते थे।अबकी भी आए। यह विवाहिता  स्त्रियों का व्रत है। इसका फल है पति का कल्याण। विधवाएं भी अस व्रत का यथेचित रीति से  पालन करती है। ति से उनका सम्बन्ध शारीरिक नहीं वरन् आध्यात्मिक होता है। उसका इस जीवन के साथ अन्त नहीं होता, अनंतकाल तक जीवित रहता है। कैलाशकुमारी अब तक यह व्रत रखती आयी थी। अब उसने निश्चय किया मै व्रत न रखूंगी। मां ने तो माथा ठोंक लिया। बोलीबेटी, यह व्रत रखना धर्म है।
     कैलाशकुमारी-पुरष भी स्त्रियों के लिए कोई व्रत रखते है?
     जागेश्वरीमर्दों में इसकी प्रथा नहीं है।
     कैलाशकुमारीइसलिए न कि पुरूषों की जान उतनी प्यारी नही होती जितनी स्त्रियों को पुरूषों की जान ?
जागेश्वरीस्त्रियां पुरूषों की बराबरी कैसे कर सकती हैं? उनका तो धर्म है अपने पुरूष की सेवा करना।
कैलाशकुमारीमै अपना धर्म नहीं समझती। मेरे लिए अपनी आत्मा की रक्षा के सिवा और कोई धर्म नहीं?
जागेश्वरीबेटी गजब  हो जायेगा, दुनिया क्या कहेगी?
कैलाशकुमारी फिर वही दुनिया? अपनी आत्मा के सिवा मुझे किसी का भय नहीं।
     हृदयनाथ ने जागेश्वरी से यह बातें सुनीं तो चिन्ता सागर में डूब गए। इन बातों का क्या आश्य? क्या आत्म-सम्मान को भाव जाग्रत हुआ है या नैरश्य की क्रूर क्रीडा है? धनहीन प्राणी को जब कष्ट-निवारण का कोई उपाय नहीं रह जाता तो वह लज्जा को त्याग देता है। निस्संदेह नैराश्य ने यह भीषण रूप धारण किया है। सामान्य दशाओं में नैराश्य अपने यथार्थ रूप मे आता है, पर गर्वशील प्राणियों में वह परिमार्जित रूप ग्रहण कर लेता है। यहां पर हृदयगत कोमल भावों को अपहरण कर लेता हैचरित्र में अस्वाभाविक विकास उत्पन्न कर देता हैमनुष्य लोक-लाज उपवासे और उपहास की ओर से उदासीन हो जाता है, नैतिक बन्धन टूट जाते है। यह नैराश्य की अतिंम अवस्था है।
     हृदयनाथ इन्हीं विचारों मे मग्न थे कि  जागेश्वरी ने कहा अब क्या करनाउ होगा?
जागेश्वरीकोई उपाय है?
हृदयनाथबस एक ही उपाय है, पर उसे जबान पर नहीं ला सकता